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वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :ईक्षतिकर्मव्यपदेशात् सः 1/3/13
सूत्र संख्या :13

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (ईक्षतिकम) ज्ञानानुकूल कर्म से (व्यपदेशात्) उपदेश होने से।

व्याख्या :
भावार्थ- इस स्थान में भी ज्ञानानुसार कर्म का उपदेश होने से परमात्मा ही लेना उचित है; क्योंकि ब्रह्मा दो प्रकार का बतलाया है है- एक शब्द ब्रह्मा अर्थात् वेद व ओंकार शब्द, दूसरे परमात्मा जो ओंकार शब्द का अर्थ है शब्द के अंदर ज्ञान के अनुसार कर्म करने सर्वशक्ति नहीं होती और वहाँ ज्ञानानुसर करनेवाले का ध्यान बतलाया गया हैं; इस कारण ओंकार शब्द का जो अर्थ है, उसी का ध्यान करना उचित है। प्रश्न- ध्यान तो साकार का हो सकता है, ओंकार का अर्थ निराकार है; इस कारण उसका ध्यान हो ही नहीं सकता। अतः वहाँ शब्द अर्थात् ओंकार शब्द ही लेना उचित है; क्योंकि वह अकार, उकार मकार तीनों अक्षरों से युक्त होने से साकार अर्थात् ध्यान करने के योग्य है। उत्तर- यह पक्ष कि ध्यान साकार का होता है, उन मनुष्यों को हो सकता है कि जो ध्यान के लक्षण से अनभिज्ञ हैं; क्योंकि ध्यान का लक्षण महर्षि कपिल ने यह किया है कि जब मन विषय रहित हो जावे, उस अवस्था का नाम ध्यान है। साकार पदार्थ इन्द्रियों का विषय होता है; अतः जो विषय है, उसमें लगा हुआ मन विषय से पृथक् कैसे हो सकता है; निदान ध्यान निराकर का ही होता है। प्रश्न- उसके अगले सूत्र में लिखा है कि या तो सबसे सूक्ष्म जानकर या सबसे बड़ा विचार कर मन वश में आ जाता है। उत्तर- तात्पर्य यह है कि परमात्मा महान से महान और सूक्ष्म से सूक्ष्म है; इस कारण यदि मन बड़े की ओर लगता है, तो उस ओर को लगावे; यदि मन सूक्ष्म की ओर लगता है, तो उस ओर चलावे। मन का स्वभाव है कि वह जिस पदार्थ के देखने को चाहता है, उसका अन्त अर्थात् सीमा जाने बिना नहीं लौटता और सीमा मालूम करने के पश्चात् ठहरता नहीं; इस कारण शांत पदार्थों में मन स्थिर नहीं होता; क्योंकि उनकी सी जानकर चल देता है। केवल परमात्मा में ही मन स्थिर होता है; क्योंकि मन का स्वभाव है, जानकर लौटना और पामात्मा के गुण अनन्त हैं, जिसके कारण जब मन परमात्मा में लगता है, तो तो वह अन्त लेकर लौटता है और परमात्मा के गुण अनन्त होने से उसको अन्त नहीं मिलता, जिससे वह लौट सके; इस कारण वहीं थककर रह जाता है। उस दशा का नाम विज्ञान है। प्रश्न- यह नियम है कि मन अनुभूत ही को जानता है; किन्तु दुःख-सुख आदि जो इन्द्रियों से अनुभव नहीं होते, उनको भी मन जानता है? उत्तर- सुख-दुःख का कारण बाहर इन्द्रियों से अनुभव करके मन उनको जान लेता है। जहाँ कारण है ही नहीं, वहाँ मन कैसे जान सकता है। मन जाननेवाला नहीं; किन्तु जानने का यंत्र है और नियम हो कि साकार साकार को जान सके और निराकार निराकार को, तो साकार मन वा इन्द्रियाँ परमात्मा के ज्ञान का साधन न हो और नहीं निराकार जीवात्मा को साकार वस्तुओं का ज्ञान हो सके। प्रश्न- ज्ञानानुकूल कर्म तो जीव भी करता है, तो उससे परमात्मा का लेना क्या आवश्यक है; क्योंकि स्वाभाविक कर्म है। उत्तर- जीव के अल्पज्ञ होने से उसका ज्ञानपूर्वक कर्म होता। यदि जीव के कर्म ज्ञान के अनुकूल होते, तो उसे कभी उसफलता और दुःख प्राप्त ही न होता। जीव में ज्ञान और अज्ञान दोनों मिले रहते हैं, केवल ज्ञानस्वरूप परमात्मा के कर्म ही ज्ञान के अनुसार होते है; इस कारण परम पुरूष से ओंकार शब्द नहीं लेना चाहिए, वरन् ओंकार शब्द से जिस पर ब्रह्मा परमात्मा का ज्ञान प्रकट होता है, वही लेना उचित है। प्रश्न- छांदोग्य उपनिषद् में लिखा है कि उस ब्रह्मापुर में एक धर्म नाम कमल है-‘‘इन्द्र के आकाश में है; उसमें जो अन्त है, उसके जानने की इच्छा कर; उसको निर्णय कर सो यह जो ‘दहर’ बताया है; क्या यह आकाश का नाम है, परमात्मा का वा जीवात्मा का?