सूत्र :धर्मोपपत्तेश् च 1/3/9
सूत्र संख्या :9
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (धर्मोपत्तेः) धर्म पाये जाने से (च) भी।
व्याख्या :
भावार्थ- जो लक्षण भूमा का बतलाया गया है, वह केवल परमाम्मा में ही घट सकता है, क्योंकि परमात्मा में नैमित्तिक ज्ञान का अभाव है अर्थात् ज्ञान-प्राप्ति जीव को होती है, परमात्मा को नहीं होती और वहाँ बतलाया गया है कि जहाँ दूसरें को न देखे, न जाने, न सुने। अतः यह गुण परमात्मा में विद्यमान हैं प्राणों में बिलकुल ज्ञान की शून्यता है, जीवात्मा में स्वाभाविक ज्ञान और नैमित्तिक ज्ञान दोनों न्रकार का ज्ञान है; इस कारण न तो प्राणों में, न भूमा में, और न जीव ही में धर्म पाया जाता है; केवल परमात्मा में भीतरी ज्ञान के होने और प्राप्त ज्ञान न होने से भूमा का गुण पाया जाता है; इस कारण परमात्मा ही भूमा है। दूसरे, भूमा को आनन्द-स्वरूप बतलाया गया है; जीवात्मा आनन्द-स्वरूप नहीं। इसकी प्रथम बहस को चुकी है; क्योंकि वह परमात्मा की उपासना से आनन्द प्राप्त करता है। प्राण भी आनन्द-स्वरूप नहीं; केवल परमात्मा ही आनन्दमय सिद्ध होते हैं; जिसकी बहस प्रथम पाद में कर चुके हैं; निदान भूमा परमात्मा ही हो सकता है।
प्रश्न- उपनिषदों में जहाँ बतलाया गया है कि ‘अक्षर’ अर्थात् नाशराहेत सबमें माला के मानकों में तागे की भाँति पिरोया हुआ है, उस ‘अक्षर’ से वहाँ क्या प्रयोजन है?