सूत्र :भेदव्यपदेशात् 1/3/5
सूत्र संख्या :5
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (भेद) अनन्ता व पृथकता (व्यपदेशात्) बतलाये जाने से।
व्याख्या :
भावार्थ- जीव किसी अवस्था में सर्वज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि श्रुति ने जीव और ब्रह्मा का भेद बतलाया है। जो मनुष्य जीव ब्रह्मा का भेद उपाधि से मानते हैं, वे बहुत ही उल्टे मार्ग पर चलते हैं; क्योंकि श्रुति ने बतलाया है कि जीव के भीतर ब्रह्मा है, जिसको यह नही जानता। जबकि जीव के भीतर ब्रह्मा विद्यमान है, ब्रह्मा आत्मा जीव उसका फल शरीर; जिस प्रकार शरीर को आत्मा मानना अविद्या है; ऐसे ही जीव को ब्रह्मा वा ब्रह्मा को जीव मानना महती अविद्या है।
प्रश्न- यदि जीव का भेद मानना जावेगा, तो अद्वैत-सिद्ध आदि सब ग्रंथ मिथ्या हो जावेंगे और वे श्रुतियाँ जो अभेद को बतलाती हैंत्र असत्य हो जावेंगी?
उत्तर- श्रुतियाँ अभेद को बतलानेवाली अशुद्ध नहीं तो सकतीं क्योंकि भेद के अर्थ दूरी के भी हैं। अभेद का अर्थ है-दूरी का न होना; क्योंकि परमात्मा से कोई वस्तु दूर नहीं। परमात्मा के कोई शरीर नहीं और उसके कोई समान है; इसलिये वह अपने गुण-कर्म-स्वभाव में अद्वैत है इस पर और युक्ति देते हैं।