सूत्र : प्राणभृच् च 1/3/4
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (प्रणाभृत्) जीवात्मा (च) भी।
व्याख्या :
भावार्थ- जिस प्रकार प्रकृति सर्वज्ञ न होने से सब जगत् के लोगों का निमित्त कारण वा रहने वा रहने का स्थान नहीं हो सकती; ऐसे ही अल्पज्ञ जीवात्मा भी हो सकता, क्योंकि वह ज्ञानवाला है, परन्तु शांत होने से उसका ज्ञान भी शांत ही रहेगा। वह किसी दशा में सर्वज्ञ नहीं हो सकता; इस कारण जीवात्मा भी जबत् का उपादान कारण वा निमित्त कारण और आधार नहीं हो सकता। यह सब परमात्मा के ही कारण से है।
प्रश्न- क्या शांत पदार्थ में पदार्थ में अनन्त गुण नहीं आ सकते हैं? हम तो देखते हैं कि छोटे से बीज में एक बहुत बड़ा वृक्ष बनाने की शक्ति रहती है।
उत्तर- इसकी उपमा नहीं मिलती है कि शांत पदार्थ में अननत गुण हो सकते हैं बीज में वृक्ष बनने की शक्ति है; परंतु बीज भी शांत है और वृक्ष भी शांत है।
प्रश्न- क्या परमात्मा सर्व-शक्तिमान है? एक शांत पदार्थ में अनन्त गुण नहीं रह सकते ?
उत्तर- परमात्मा अपने अनादि नियमों को तोड़ नहीं सकता; क्योंकि वह सर्व और स्वतंत्र है। नियमों का वह उल्लंघन नहीं कर सकता, जो जो अल्पज्ञ अथावा असमर्थ हो। यदि मनुष्य अल्पज्ञता से अशुद्ध नियम बनाता है, तो उसके हानि देखने पर बदल देता है अथवा जब कोई असमर्थ होता है, तो अपने शुद्ध नियम भी बदल देता है, किन्तु परमात्मा के सब नियम अटल हैं और जीव अपने नियमों को बदला करता है।
प्रश्न- जब जीव उपाधि से रहित होकर ब्रह्मा बन जावेगा, तब वह सर्वज्ञ हो जावेगा?