DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :आमनन्ति चैनम् अस्मिन् 1/2/32
सूत्र संख्या :32

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (आमनन्ति) उपनिषदों में विचार करते हैं (च) भी (एनम्) इस विषय को (अस्मिन्) सम्पत्ति के विचार में।

व्याख्या :
भावार्थ- परमात्मा की सम्पत्ति अर्थात् राज्य को दिखलाने के लिये जावाल उपनिषद् में भी ऐसा ही कथन है। जो यह अनन्त और अव्यक्त आत्मा है। अर्थात् जो अन्नत सत् है, सूक्ष्म आत्मा वह अविमुक्त में स्थित है। पुनः प्रश्न हुआ कि वह अविमुक्त किसमें स्थित है? वरणा और नासी के बीच में स्थित है और वह वरणा नासी कहाँ हैं? जिसका उत्तर कि जहाँ नासिका अर्थात् नाकऔर भैओं का संयोग है। इन सब बातों में जो इस पाद में प्रकट की हैं, जिनसे परमात्मा को अनेक स्थानों में व्यापक बतलाकर, उसको सर्व-व्यापक सिद्ध किया है, जिसमें जीव-ब्रह्मा को भली प्रकार से प्रकट किया है। जो मनुष्य प्रथम दोनों पादों को ध्यान से पढ़ लेते है हैं, उनके हृदय में किस प्रकार विश्वास हो सकता है कि जीव-ब्रह्मा में जो मनुष्य उपाधि से भेद बतलाते हैं, उनको यहाँ सिद्ध करना उचित कि घटाकाश के भीतर महादकाश व्यापक है; क्योंकि श्रुति ने तो जीव के भीतर ब्रह्मा का व्यापक मानकर, जीव को शरीर और परमात्मा को उस शरीर का आत्मा बताया है; जिन मनुष्यों को वेदान्त के जानने का अभिमान है और वह किसी युक्ति से जीव-ब्रह्मा का भेद दूर करने की इच्छा रखते है, उनको कोई ऐसी वस्तु वस्तु खोजकर लेनी उचित है, जो उपाधि से अपने भीतर प्रवेश हों जावे। संसार में तो कोई ऐसी वस्तु नहीं जो अपने भीतर प्रवेश हो सके; क्योंकि उसमें आत्माश्रयी दोष है; परन्तु देवान्तियों के सिद्धान्त विपत्ति जाननेवाले मायावादियों की कल्पना-शक्ति बड़ी प्रबल है। उनको संसार में ऐसी वस्तु की कल्पना करनी चाहिए, जो अपने भीतर स्वयम् रह सके। इस समय तक बहुत से वेदान्त के ग्रंथ हैं; परन्तु किसी ग्रंथ में ऐसी वस्तु प्रतीत नहीं हुई, जो अपने भीतर उपाधि से स्वयं प्रवेश हो सके, जबकि व्यास मुनि और उपनिषद् बड़े जोर ब्रह्माऔर जीव का स्वरूप बतला रहे हैं और जीवात्मा को विज्ञानात्मा इस कारण कहा है कि वह नैमित्तिक ज्ञान और ज्ञान-प्राप्ति रखता है और परमात्मा में नैमित्तिक ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि उसके सर्वज्ञ होने से कोई वस्तु उसके ज्ञान से बची हुई नहीं, जिसका वह ज्ञान प्राप्त करे। जीवात्मा के अल्पज्ञ होने से उनके ज्ञान में सदैव उन्नति हो सकती है; इस कारण उसकी विज्ञानात्मा शंकराचार्य ने वर्णन किया है। अब इस पाद को समाप्त करते हैं।

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