DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :मुक्तोपसृप्यव्यपदेशाच् च 1/3/2
सूत्र संख्या :2

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (मुक्तोपसृप्यम्) मुक्ति में उसका त्याग (व्यपदेशात्) बतलाया जाने से।

व्याख्या :
भावार्थ- प्रकृति उपासना के ययोग्य नहीं; क्योंकि मुक्ति में उसकी दूरी का उपदेश किया गया है। जब तक जींव का प्रकृति के साथ संबंध रहता है, तब तक मुक्ति नहीं हो सकती; इस कारण लोकों के रहने का स्थान उपसना के योग्य एक ब्रह्माही को समझना चाहिए। प्रश्न- मुक्ति में प्रकृति का त्याग क्यों बतलाया है? उत्तर- जीवात्मा अल्पज्ञ है और प्रकृति के कार्य असंख्य आकृतियें है, जिनको अल्पज्ञ जीवात्मा नहीं जानता। वह अल्पज्ञता से अपने को शरीर अर्थात् देह विचार करके किसी वस्तु को, जो शरीर के लिए उपयोगी समझी जाती है, अपने लिये उपयोगी विचार करके उसमें राम अर्थात् इच्छा उत्पन्न करता है और जिसको शरीर के कारण हानि समझता है, उसमें द्वेष अर्थात् घृणा करता है; क्योंकि वास्तविक उत्पत्ति वस्तु जीव के कारण हानि वा लाभदायक नहीं; इस कारण जीव को हानि वा लाभ समझना अविद्या है। अविद्या का कारण प्रकृति के कार्यों का संबंध है; इस कारण जब तक अविद्या रहेगी, तब तक मुक्ति हो नहीं सकती। इसलिये मुक्ति में प्रकृति की उपसना का त्याग आवश्यक है। प्रश्न- मुक्ति में राग, द्वेष और कर्म शेष रहते हैं या नहीं? उत्तर- उपनिषद् में बतलाया है कि उस समय तक अन्तःकरण की गाँठ टूट जाती है, सब शंकायें नाश हो जाती हैं1 और सब कर्म नाश हो जाते हैं; मुक्ति की अवस्था में जब परमात्मा का दर्शन करता है। प्रश्न- क्या मुक्ति में कर्मों का नाश हो जावताव है? गीता में भी विद्यमान है कि किया हुए कर्म अवश्य भोगने पड़ेगे। उत्तर- जब तक जीवात्मा को सत्य ज्ञान और परमात्मा के दर्शन नहीं होते, जब तक तो किये हुए कर्म अवश्य भोगने पड़ते है; परंतु जिस समय मुक्ति में अन्त-करण की गाँठ, जिसमें पाप-पुण्य के संस्कार टूट जाते हैं, तो पाप व पुण्य भी उसी अन्तःकरण के संग ही नाश हो जाते हैं; क्योंकि प्रत्येक जीव की कर्म-सूची उसके मन के साथ रहती है। प्रश्न- यदि पापों के नाश हो जाने को स्वीकार किया जावे, तो बहुत से मनुष्य पाप करने से भी नहीं डरेंगे? उत्तर- श्रुति स्पष्ट शब्दों में कर्मों का नाश होना स्वीकार करती है और प्रत्यक्ष में भी देखा जाता है कि जब कोई मनुष्य दिवाला निकाल देता है, तो वह उस लेन-देन से भार-मुक्त हो जाता है; क्योंकि वह दोनों में अहंकार नहीं रखता- न लेने में न देने में। श्रुति कहती है कि जब सब इच्छायें, जो उसके मन में स्थापित हैं, छूट जाती हैं; उसके अतिरिक्त यह बार-बार जन्म लेनेवाला और मृत्युवाला जीव अमृत होता है। उस अवस्था में बह्य के आन्न्द को लेता है। प्रश्न- क्योंकि सब देवलोक आदि का उपादान कारण प्रकृति है। इस कारण वही इन लोकों के रहने का स्थान हो सकता है, ऐसा अनुमान उचित है?

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