सूत्र :साक्षाद् अप्य् अविरोधं जैमिनिः 1/2/28
सूत्र संख्या :28
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (साक्षात्) प्रत्यक्ष में (अपि) भी (अविरोधं) निरोध नहीं (जैमिनिः) व्यासजी के शिष्य जैमिनि आचार्य।
व्याख्या :
भावार्थ- उपासना प्रकरण में साक्षात् (बनजर जाहिर) ब्रह्मा की उपासना लिखी है। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं। जो मनुष्य यह कहते हैं कि इस जगह प्रत्येक उपासना अर्थात् जैसे एक स्थान नियत करके चाँदमारी में निशानेबाजी के सिखानेवाले सिखलाते हैं; ऐसे ही अग्नि उसके अभिमानी देवता को प्रत्येक उपासना के लिये श्रुति ने कहा है; यह सत्य नहीं; किंतु जैमिति जी कहते हैं कि वैश्वानर ब्रह्मा ही का नाम है; उसमें किसी श्रुति से विरोध नहीं आता।
प्रश्न- क्या व्याकरण आदेश पर वैश्वानर नाम परमात्मा को हो सकता है?
उत्तर- ‘‘विश्वे नरा अस्येति वैश्वानरः’’कुल संसार में जिसके नर हैं, इस उद्देश्य से सबका आत्मा होने से परमात्मा वैश्वानर कहा जा सकता है; क्योंकि ऐसा कोई जीव नहीं, जो परमात्मा के नियम के विरूद्ध है।
प्रश्न- अहुत से नास्तिक हैं, तो जो परमात्मा की आज्ञा तो क्या उसकी सत्ता से भी इनकारी हैं।
उत्तर- ऐसा कोई मनुष्य नहीं, चाहे आस्तिक हो वा नास्तिक हो; जो अपने आपको परमात्मा के नियमों पर चला सके। परमात्मा ने नेत्र से देखने का नियम रखा है; कोई नास्तिक कर्ण से नहीं देख सकता; परमात्मा के नियमानुकूल पाप और पुण्य का फल सुख-दुःख मिलते हैं; उसको कोई वलिष्ठ से वरिष्ठ नास्तिक भी तो उनसे नहीं बचा सकता; परमात्मा के निय से मृत्यु आती है, उससे कोई नास्तिक बच नहीं सकता; इस कारण सब परमात्मा के ही नर है। और वह वैश्वानर कहाता है। उस पर आचार्य की संप्रति दिखाते हैं।