सूत्र :शब्दादिभ्योऽन्तःप्रतिष्ठानाच् च नेति चेन् न तथा दृष्ट्युपदेशाद् असम्भवात् पुरुषमपि चैनम् अधीयते 1/2/26
सूत्र संख्या :26
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (शब्दादिभ्यः) शब्दादि हेतुओं से (अन्तः प्रतित्नष्ठनात्) भीतर उचित ढंग परस्थिति होने से (न) नहीं (तथा) ऐसे (दृष्ट्युपदेशात्) दृष्टि अर्थात् नजर देखने का उपदेश होने से (असम्भवात्) असम्भव होने से (पुरूषम्) पुरूष अर्थात् शरीर में रहनेवाला (अपि) भी (च) और (एवम्) इसको (अधीयते) पढ़ते हैं।
व्याख्या :
भावार्थ- कुछ मनुष्यों को हृदय में जो इस स्थान पर, यह शंका उत्पन्न होती है कि वैश्वानर शब्द के अर्थ परमेश्वर से लेना सत्य नहीं; क्योंकि वह दूसरी वस्तु के लिये प्रकट किया गया है। यह शंका कि पुरूष तो भीतर व्यापक है, उससे अग्नि ही वैश्वानर शब्द का अर्थ लेना उचित है; उसके उत्तर में ऋषि कहते हैं कि यह शंका उचित नहीं है क्योंकि वहाँ पर दृष्टि का उपदेश किया हैं यदि स्थान पर अग्नि का अर्थ लिया जावे, तो दृष्टि असम्भव है। वह दिखलाने वाली तो है; परंतु देखनेवाली नहीं; इस कारण अर्थ करने में दोष नहीं ऐसे ही उसको पुरूष नाम से पढ़ा गया है, तो ब्रह्मा का नाम समझना दोष-युक्त नहीं।
प्रश्न- जो अग्नि स्वेत आदि शब्दों की विशेषता से ब्रह्मा अर्थ किया है, यह सत्य नहीं; क्योंकि यह शब्द पेट की अग्नि के लिये भी आ सकते हैं।
उत्तर- इस स्थान पर केवल यही विशेषता होती, तो सम्भव था कि दोनों अर्थ किये जाते; किंतु उस स्थान पर पुरूष पढ़ा गया गया है, जो स्पष्ट शष्दों में जीव और ब्रह्मा का नाम है। उपासना करनेवाला जीव है; इस कारण जिसकी उपासना की जावे, वह पुरूष केवल ब्रह्मा ही है; निदान वैश्वानर शब्द से यह ही अर्थ लेना चाहिए। इस पर विचार करके परिणामनिकालते हैं।