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वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :रूपोपन्यासाच् च 1/2/23
सूत्र संख्या :23

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : भावार्थ- जहाँ उपनिषदों ने अलंकार से ब्रह्मा का वर्णन किया है, वहाँ बताया है कि अग्नि उसका मस्तक, चन्द्र और सूर्य उसके नेत्र, दिशायें कान, वेद उसकी वाणी, वायु उसके प्राण, सारा संसार उनका हृदय और पृथ्वी उसके पग हैं, अथवा उन भूतों के भीतर रहनेवाला आत्मा है।

व्याख्या :
प्रश्न- इधर तो परमात्मा को मूर्ति से रहित बतलाया था, उधर उसका शरीर बतला दिया और उसके सब अंग भी गिनवा दिये। क्या उपनिषदों में व्याघात दोष नहीं हैं? उत्तर- मूर्ति का निषेध इसलिये किया है कि वह शान्त नहीं; क्योंकि सदैव शान्त रहती है। इस स्थान पर अंग इस कारण वर्णन किये हैं कि जिससे विदित हो कि वह सर्व-व्यापक है। कोई भूत उससे बड़ा तो क्या, उसके समान भी नहीं हो सकता? क्योंकि वह भूतों में व्यापक है और प्रत्येक भूत एक अंग के समान भी नहीं है। प्रश्न- जो अदृश्य अर्थात् दिखाई पड़ने के अयोग्य गुणों आदि से विशिष्टअ है, वह किस प्रकार भूतों कारण हो सकता है? उसको आकृति और अंगोंवाला प्रकट करना किस प्रकार उचित हो सकता है? उत्तर- इन सब श्रुतियों से सर्वभूतों को उत्पत्ति और नाशवाला सिद्ध करके परमात्मा को सबके भीतर रहनेवाला बताया है, न कि उसकी आकृति और मूर्ति स्वीकार की गई है; क्योंकि यदि भूतों को उसका शरीर स्वीकार किया जाता, तो वह उनका उत्पन्न करनेवाला नहीं हो सकता; क्योंकि कोई अपने शरीर को स्वयम् उत्पन्न नहीं करता। प्रश्न- इन वक्यों से भीत होता है कि परमात्मा दो प्रकार का है-एक सगुण, दूसरा निर्गुण। जिन श्रुतियों में उसकी मूर्ति का वर्णन है अर्थात् जहाँ उसके पग शिर आदि बतलाये हैं; वहाँ सगुण का वर्णन है? उत्तर- निर्गुण और सगुण दो प्रकार का परमात्मा नहीं; किन्तु प्रत्येक पदार्थ में दोनों बातें विद्यमान हैं अर्थात् अपने गुणों से गुणी होने के कारण सगुण और दूसरी वस्तु के गुण न होने के कारण निगुण कहलाता है। परमात्मा भी अपने ज्ञान आदि गुणों के कारण सगुण और प्रकृति के जो सत्-रज-तम गुण हैं उसके लिये निर्गुण कहाता है। यहाँ अलंकार केवल उसका सर्व-व्यापक और जगतकर्ता प्रकट करने के कारण ही दिया हैं; क्योंकि उसको सर्वतगत् में व्यापक बताया है। कहीं सारे जगत् की एक पाद में दिखलाया है, ताकि मनुष्य उसकी प्रकृति के समान व प्रकृति को उसका शरीर न मान लें। प्रश्न- श्रुतियों में जो वैश्वानर आदि शब्द जगत् में उपासना प्रकरण में आये हैं, वह अग्नि के प्रकट करनेवाले हैं या जीवात्मा अथवा परमात्मा के?