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वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :शरीरास्चो उभयेऽपि हि भेदेनैनम् अधीयते 1/2/20
सूत्र संख्या :20

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (शारीश्च) जरीवात्मा अन्तर्यामी नहीं (उभये) दोनों में (अपि) भी (जीवात्मा करके (भेदेन) भेद करके (एनम्) परमात्मा को (अभिधीयते) पढ़ा है।

व्याख्या :
भावार्थ- जीवात्मा को भी अन्तर्यामी नहीं कह सकते; क्योंकि जीवात्मा और परमात्मा दोनों में परमात्मा को जीवात्मा का अन्तर्यामी श्रुतियों ने बतलाया है जब जीव ब्रह्मा का भेद करके एक को अन्तर्यामी दूसरे को नियम के अन्दर रहनेवाला सिद्ध किया है, तो वह किस प्रकार अन्तर्यामी हो सकता है? यद्यपि जीवात्मा के लिये द्रष्टा (देखनेवाले) कर्म जो परमात्मा में बतलाये हैं, सम्भव हो सकते हैं; क्योंकि वह भी चेतन (ज्ञानवाला है); परन्तु शान्त होने से वह सूक्ष्म आदि का अन्तर्यामी नहीं हो सकता और न अपना अन्तर्यामी हो सकता है; निदान सबका अन्तर्यामी परमात्मा ही है। प्रश्न- क्या इस शरीर में दो देखनेवाले है-एक जीवात्मा दूसरा परमात्मा? यदि कहो कि दोनों के होने में क्या दोष है? तो उस श्रुति से विरोध है, जो1 कहती है कि उससे दूसरा कोई देखनेवाला नहीं, उसके अतिरिक्त कोई सुननेवाला नहीं और उससे पृथक कोई मनन करनेवाला नहीं। यहाँ केवल शब्दों में इस बात का खण्डन किया गया है कि वह देखनेवाला नहीं है। उत्तर- वहाँ देखने व सुनने से तात्पर्य सबके देखने व सुनने से है कि सर्वज्ञ अर्थात् सारे जबत् को देखनेवाला, सबकी बातें जाननेवाला, सबके मन के भेद को समझनेवाला सिवाय परमात्मा के दूसरा नहीं। प्रश्न- शंकराचार्य ने यहाँ दोनों शाखाओं का अर्थात् माध्यान्दिनी और कण्व शाखावाले इस पाठ से पढ़ते हैं; ऐसा अर्थ किया है? उत्तर- इस अर्थ में भी तो वह श्रुति लेनी पड़ती है, जिसमें जीव को अन्तर्यामी परमात्मा बतलाया है; परन्तु दोनों शाखावाले यद्यपि पृथक्-पृथक् पाठ इस श्रुति का करते हैं; परन्तु इसमें भी जीव का अन्तर्यामी परमात्मा बना का बना ही रहता है; निदान दोष कोई नहीं आता। प्रश्न- शंकराचार्य ने इइस स्थान-भेद को उपाधिकृत बतलाया है, जैसे-घटाकाश, मठाकाश और महदाकाश? उत्तर- घटाकाश के भीतर महदाकाश व्यापक नहीं होता और न वह उसका अन्तर्यामी ही हो सकता है; इस कारण शंकराचार्यजी का प्रयोजन जीव और ईश्वर का भेद तो उपाधि से है; क्योंकि अविद्योपाधि अर्थात् कार्यशरीर से जीव और कारण शरीर से ईश्वर हो सकता है; परन्तु उपाधि-भेद अन्तर्यामी होना असम्भव नहीं हो सकता। प्रश्न- परा और अपरा विद्या में परा का यह लक्षण है कि जिससे उस अक्षर को अर्थात् नाश से रहित का ज्ञान हो1 और उसके लक्षण बतलाये कि जो देखने में नहीं आता, जो पकड़ा नहीं जाता, जिसका गोत्र अथवा वर्ण नहीं, जिसके कान और आँख नहीं, जो हाथ-पाँव से रहित और सर्व-व्यापक, सर्वान्तर्यामी, नित्य सूक्ष्म और नाश-रहित है, उस भूतों के कारण को जो मनुष्य जानते हैं अब यहाँ यह शंका उत्पन्न हुई कि यह भूतों का कारण प्रकृति, जीवात्मा पर परमात्मा है?