सूत्र :अदृश्यत्वादिगुणको धर्मोक्तेः 1/2/21
सूत्र संख्या :21
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (अदृश्यत्वादिगुणकः) न देखने योग्य गुणोंवाला परमात्मा ही है धर्मोकेः) धर्म बताया जाने से।
व्याख्या :
भावार्थ- उसके धर्म और प्रकृति के धर्म बहुधा मिलते हैं; परन्तु भूतों का कारण परमात्मा ही है; क्योंकि सबके भीतर प्रकृति नहीं जा सकती और बहुधा प्रकृति का नाम नहीं। इस प्रकार के धर्म कहने से प्रतीत होता है कि प्रकृति ने जिन भूतों के कारण का वर्णन किया हैं, वह परमात्मा ही है।
प्रश्न- जब कि दृष्टान्त में उपादान कारण दिया है, तो उस स्थान पर भी उपादान कारण अर्थात् प्रकृति को लेना उचित है, जैसे-प्रकृति में औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, मनुष्य के शरीर से लोभ उत्पन्न होते हैं, और मकड़ी से जाला उत्पन्न होता है; ऐसे ही उस अक्षर अर्थात् नाश-रहित से जबत् उत्पन्न होता है?
उत्तर- तीनों दृष्टान्त अपादान कारण के नहीं हैं; क्योंकि पृथ्वी के भीतर पंरमात्मा अन्तर्यामी विद्यमान होने से औषधि प्रबन्ध-क्रिया (हरकते-इन्तजामा) से उत्पन्न होते हैं और मकड़ी के भीतर जाला भी हरकत-इन्तजामी और जीव को हरकत स्वाभाविक क्रिया से उत्पन्नहोते हैं; इस कारण जिस प्रकार इन स्थानों में आत्मा कारण है; ऐसे ही आत्मा से भूत उत्पन्न होते हैं। यदि परमात्मा के धर्म सर्वज्ञ आदि बतलाये होते, तो भी अनुमान से परमात्मा का ही ज्ञान होता है। जबकि वहाँ यह धर्म बतलाये गये है, जो सिवा परमात्मा के दूसरे में हो नहीं सकते, तो प्रकृति कैसे भूतों कारण स्वीकृत हो सकती है; मुख्यता वेदान्त-विवाद के भीतर जहाँ कत्र्ता अर्थात् निमित्त कारण है।
प्रश्न- अक्षर शब्द प्रकृति और परमात्मा दोनों के लिये आ सकता है। दोनों सत् अर्थात् उत्पत्ति और नाश से रहित हैं, पुनः अक्षर से ब्रह्मा का ग्रहण करने और प्रकृति न करने में क्या युक्ति है? और ऊपर में दृष्टान्तों में यदि चेतन आत्मा मान भी लिया जावे, तो साथ ही शरीर उपादान कारण भी विद्यमान है; केवल ब्रह्मा को लेना और प्रकृति को न लेना किस प्रकार युक्त हो सकता है?
उत्तर- हम प्रथम बता चुके हैं कि वेदान्त-शास्त्र निमित्त कारण अर्थात् कर्ता का वाद करता है; इसलिए वेदान्त में कारण शब्दों से कर्ता अर्थात् ब्रह्मा ही लेना उचित है।
प्रश्न- जबकि तीन के भीतर कारणत्व विद्यमान है, तो दूसरे क्यों न लिये जावे?