सूत्र :अनवस्थितेर् असंभवाच् च नेतरः 1/2/17
सूत्र संख्या :17
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (अनवस्थितेः) व्यवस्था न होने के कारण (असमम्भवात्) असम्भव होने से से (च) भी (न) नहीं (इतरः) जीव आदि।
व्याख्या :
भावार्थ- सूर्य आदि का आभास और जीवातम आदि के नेत्र के भीतर रहनेवाला पुरूष होना असम्भव होने के कारण सिथति नहीं होती; इस कारण नेत्र के भीतरवाला पुरूष ब्रह्मा है।
प्रश्न- छायात्मा आभास चक्षु के भीतर जाता है, तो उसे असम्भव क्यों कहा?
उत्तर- वह नित्य रहता है; इस कारण यह अर्थ असम्भव है; क्योंकि उस पुरूष को अमृत बताया है।
प्रश्न- जीवात्मा तो नित्य है, वही लेना उचित है?
उत्तर- जीव को भी छोड़ना पड़ता है और मृत्यु शरीर और आत्मा के वियोग का नाम है; निदान उसमें आँख के संग नित्य सम्बन्ध मानना घट नहीं सकता; इस कारण ब्रह्मा ही लेना उचित है। देवताओं को अमर अधिक समय तक रहनेवाला होने से कहा गया है, जीव यद्यपि मरता नही; परन्तु शरीर आदि को त्यागने से अमर नहीं कहला सकता। इस पर और युक्ति देते हैं।