सूत्र :न च स्मार्तम् अतद्धर्माभिलापाच् छारीरश् च 1/2/19
सूत्र संख्या :19
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (न) नहीं (च) भी (स्मात्र्तम्) सांख्यस्मृति से बतलाया हुआ प्रधान अर्थात् प्रकृति (अतद्धर्मामिलापात्) उसका धर्म उसमें विद्यमान न होने व अन्तर्यामी होने के योग्य न होने से।
व्याख्या :
भावार्थ- यद्यपि सांख्य-स्मृति से बताया हुआ प्रधान भी बहुत कुछ गुण रखता है, अअर्थात् प्रथम तो उसमें रूप आदि गुण नहीं, दूसरे वह सर्व स्थान शान्त और परमात्मा रूप होने से जानने योग्य नहीं। इस कारण वह सब विकारों का कत्र्ता और अन्तर्यामी हो सकता है। इस बात का खण्डन इस सूत्र में किया है कि प्रधान अर्थात् प्रकृतिअन्तया्रमी नहीं; क्योंकि उन धर्मो की जो अन्तर्यामी के लिये आवश्यक ही है, अविद्यमानता पाई जाती है।
प्रश्न- वह कौन-सा धर्म है, जो प्रधान में विद्यमान नहीं ?
उत्तर- यह नियम (कायदा) है कि देखनेवाला योग्य वस्तु से पृथक् ही नहीं; किन्तु स्वयम् देखने योग्य नहीं होता, सुननेवाला, सुननेवाला पदार्थ नहीं होता; मनन करनेवाला, मनन करनेवाला पदार्थ नहीं होता और जाननेवाला, जानने योग्य पदार्थ नहीं होता।
प्रश्न- यदि द्रष्टा (देखनेवाला) दृश्य (देखनेयोग्य) हो, तो क्या दोष होगा?
उत्तर- जब देखनेवाला दृश्य अर्थात् देखने योग्य पदार्थ स्वीकार किया जावे, तो उसके देखनेवाले को पृथक् स्वीकार करना पड़ेगा; क्योंकि वह उस समय दृश्य है यदि देखने योग्य वस्तु और स्वयम् ही देखनेवाला हो, तो आत्मश्रयी दोष है। जिस प्रकार अपने कन्धों पर चढ़ना असम्भव है, ऐसे ही अपने को देखना भी असभ्भव है।
प्रश्न- हम तो नित्य देखते हैं कि हाथ में दर्पण लेकर नेत्र, नेत्र को देखता है?
उत्तर- चक्षु, चक्षु को नहीं देखता; किन्तु नेत्र के आभास को देखता है। वह आभास चक्षु से भिन्न वस्तु है; क्योंकि दूसरी जगह रहता है।
प्रश्न- हम तो श्रुतियों में सुनते हैं, जैसा कि याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से स्पष्ट कहते हैं कि आत्मा1 ही देखने योग्य है और आदि-आदि। तो क्या यह अशुद्ध है?
उत्तर- याज्ञवल्क्यजी का आश्य यह है कि बुद्धि से आत्मविचार ही मनुष्य का कर्त्तव्य है अथवा आत्मा के आभास को ही देख सकता है, जैसे चक्षु-चक्षु के आभास को देखता है। उपचार से आत्मा के गुणों व आभास के देखने का नाम आत्मा का देखना स्वीकार किया गया है।
प्रश्न- क्या प्रमाण है कि याज्ञवल्क्य का अर्थ आत्मा का आभास देखने से है?
उत्तर- क्यांकि दूसरी श्रुति में लिखा है कि दृष्टि (नजर) देखनेवालों को नहीं देखती अथवा देख सकती। कोई भी गुण अपने गुणी को नहीं जान सकता; इसलिये कारण कार्य से पृथक-पृथक अन्तर्यामी हो सकता है, जो परमात्मा है।
प्रश्न- जीव तो कारण कार्य से पृथक् है, वह क्यों नहीं अन्तर्यामी हो सकता?