सूत्र :श्रुतोपनिषत्कगत्यभिधानाच् च 1/2/16
सूत्र संख्या :16
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (श्रुत) गुरूवाक्य वा वेद-वाक्य से (उपनिषत्) उपनिषद् से (क) सुख (गति) प्राप्ति (अभिधानात्) बतलाये जाने से (च) भी।
व्याख्या :
भावार्थ- श्रुति ने अथवा दूसरे विद्वानों ने जो देवताओं के मार्ग से चलने का ढंग बतलाया है, उससे स्पष्ट प्रकट है कि नेत्र में रहनेवाले प्रकाश का जो वर्णन है, वह पुरूष ब्रह्मा ही है।
प्रश्न- श्रुति ने कितने प्रकार की गति बतलाई है?
उत्तर- श्रुति में दो मार्ग हैं, जिनसे जीव चलते हैं- तो देवताओं का अर्थात् विद्वानों का मार्ग है, जिस पर चलकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं और दूसरे पितरों का मार्ग है, जिस पर चलनेवाले बार-बार जन्म लेते हैं, जैसा कि लिखा है कि वह उस मार्ग से ब्रह्मा को प्राप्त होता है; यह ब्रह्मा-प्राप्ति का मार्ग है। देवताओं का मार्ग इस मार्ग पर चलनेवाला मुक्ति को प्राप्त होता है, जहाँ से इस कल्प में नहीं लौटता।
प्रश्न- देवता किस प्रकार कर्म करते हैं और मनुष्यों में कितने प्रकार के मनुष्य हैं?
उत्तर- देवता उस विद्वान् मनुष्य को कहते हैं, जो इस मनुष्य शरीर के उद्देश्य की समझता है। वह केवल बोता अर्थात् भविष्य के लिये भी कर्म करता है और वत्र्तमान के लिये कुछ भी पुरूषार्थ नहीं करता। मनुष्य उसका नाम है जो बोता और खाता है। अर्थात् भविष्य के लिये भी कर्म करता है और अल्पज्ञता के कारण वर्तमान के लिये भी पुरूषार्थ करता है। तीसरे पशु उसे कहते हैं कि जो केवल खाता है अर्थात् विद्यमान जन्म के लिये ही कर्म करता है।
प्रश्न- क्या जो वत्र्तमान के लिये कर्म करते हैं, वह बुद्धिमान नहीं; हम तो बड़े-बड़े विद्वानों को वर्तमान के लिये करते देखते हैं?
उत्तर- उपनिषदों ने बतलाया है कि संसार में दो मार्ग हैं-एक श्रेष्ठ मार्ग, जिसका परिणाम मुक्ति है,परन्तु वर्तमान दशा अच्छी नहीं; जिस प्रकार कृषक की अवस्था खेत बोने के समय होती है, सिर से पसीना आता है और धूप में बराबर कर्म किये जाता है। दूसरा प्रेम मार्ग है, जो इस समय तो अति उत्तम ज्ञात होता है; परन्तु परिणाम में बार-बार जन्म लेता है। बुद्धिमान पुरूषस तो फल को विचार करके श्रेय मार्ग पर चलता है, जैसे पशु किसी के अन्न पर मुँह मारते समय यह नहीं जानता कि अन्न का स्वामी डण्डा मारेगा, ऐसे ही मूर्ख नहीं जानते कि विषयों का अन्तिम परिणाम दुःख है।
प्रश्न- चक्षु के भीतर पुरूष ब्रह्मा से पृथक जीव को मानने में क्या दोष है?