सूत्र :सुखविशिष्टाभिधानाद् एव च 1/2/15
सूत्र संख्या :15
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (सुख विशिष्ट) मुख्य तो सुख वा सुख से परिपूर्ण (अभिधानात्) बतलाने से (एव) भी (च) नहीं लेना उचित है।
व्याख्या :
अर्थ- सुख मुख्य तो ब्रह्मा ही से प्राप्त होता है; क्योंकि प्रकृतिपरतंत्र होने से सुख से शून्य है; इस कारण ब्रह्मा स्वतंत्र और सुख से परिपूर्ण बतलाया गया है। जिस प्रकार कहा गया है कि जो आकाश की भाँति व्यापक है, सुखस्वरूप है; क्योंकि शांत ज्ञान शक्तिवाला परतंत्र हो सकता है; परंतु अनन्त शक्तिवाला परितंत्र नहीं हो सकता।
प्रश्न- जिस श्रुति में यह कहा है कि जो सर्व-व्यापक है, वह ही सुख-स्वरूप ब्रह्मा है; तो सर्व-व्यापक आकाश भी सुख-स्वरूप होगा?
उत्तर- आकाश प्रथम तो सर्व-व्यापक नहीं, क्योंकि परमाणु के भीतर नहीं रहता, दूसरे जड़ है है और जड़ में ज्ञान और चेष्टा देने की शक्ति न होने से स्वतंत्रता नहीं हो सकती; इस कारण सर्व-व्यापक और सुख-स्परूप ब्रह्मा ही है।
प्रश्न- यदि आकाश सर्व-व्यापक नहीं और परमाणु के भीतर विद्यमान् नहीं, तो उसका ब्रह्मा के संय उदाहरण क्यों दिया?
उत्तर- आकाश विभु है और ब्रह्मा भी विभु है; इस कारण ब्रह्मा की उपमा दी है।
प्रश्न- विभु और सर्व-व्यापक में क्या अंतर होता है?
उत्तर- विभु का प्रत्येक मूर्तिमान द्रव्य से संग-संयोग होता है और उसके भीतर होना आवश्यक है; इस कारण आकाश ब्रह्मा सूक्ष्म है; वह परमाणु के भीतर भी रह सकता है।
प्रश्न- यदि आकाश और ब्रह्मा दोनों को सर्व-व्यापक मान लिया जावे, तो क्या दोष होगा?
उत्तर- दोनों समान आकृति अर्थात् एकसे सूक्ष्म हो जावेंगे और एक दूसरे के बीच से जन पड़ेगी; क्योंकि पदार्थ में समान पदार्थ का प्रवेश असम्भव है।