DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :स्थानादिव्यपदेशाच् च 1/2/14
सूत्र संख्या :14

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (स्थानादि) पृथ्वी आदि स्थानों को (व्यपदेशात् उपदेश होने से या बतलाया जाने से (च) भी।

व्याख्या :
अर्थ- ब्रह्मा के रहने के बहुत-से स्थान बताये गये हैं। यदि एक ही स्थान बताया जाता, तो दोष हो सकता। जब बड़ापन दिखाया और पृथ्वी, आंकाश अथवा सूर्य आदि स्थानों में उसकी विद्यमानता का उपदेश किया, सूक्ष्मपन दिखाने लगे, तो नेत्र जैसी सूक्ष्म इन्द्रिय के भीतर बतलाया; इससे यह प्रकट किया गया है कि सबसे बड़ा है; इस कारण उसके राज्य से बाहर भागकर कोई नहीं जा सकता। किसी लोक में जाओ, उसे वहीं उपस्थित पाओगे। वह अति सूक्ष्म है कि मन और इन्द्रिय के भीतर विद्यमान है। उससे तुम किसी कर्म को ठिपा नहीं सकते। संसार में तुम्हारे पापों का फल भी मिले न मिले; परन्तु परमात्मा महान् राजों-महाराजों के कर्मों का फल भी देता है। तोपों के गोले, सिरोही अथवा भुसुण्डी जहाज और विमान को उस दण्ड से, जो वह प्रत्येक मनुष्य को बुरे कर्मों के कारण देता है, बचा नहीं सकते। उन श्रुतियों में उसकी उच्चता और सर्वज्ञता इस दर्जा तक दिखाई है कि जिस नेत्र से तुम चारों और देखते हो कि कोई हमारे कर्म को देख तो नहीं रहा है, वह उस चक्षु के भीतर भी विराजमान है। प्रश्न- क्या अनन्त ब्रह्माके लिये किसी एक स्थान पर विराजमान बतलाना दोष नहीं है? उत्तर- स्थान तो क्या, नाम रूप भी सर्वज्ञ और सर्व-व्यापक के लिये दोष हो सकते हैं; यद्यपि उनसे ब्रह्मा की उच्चता का वर्णन करके मनुष्यों को पापों से बचाते हैं। प्रश्न- वहाँ ऐसे कौन से चिह्न हैं; जिनसे ब्रह्मा का अर्थ लिया जावे, जीव आदि न लिये जावे?

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