सूत्र :संभोगप्राप्तिर् इति चेन् न वैशेष्यात् 1/2/8
सूत्र संख्या :8
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (सम्भोगप्राप्तिः) सुख-दुःख भोग की प्राप्ति (इतिचेत्) यदि ऐसा मानो (न) नहीं (वैशेष्यात्) ब्रह्मा; विशेषता उपार्जन से।
व्याख्या :
भावार्थ- चूँकि स्थूल वस्तु के गुण सूक्ष्म वस्तु (पदार्थ) में नहीं जा सकते हैं और मन आदि ब्रह्मा से स्थूल हैं; इस कारण इनमें रहनेवाले सुख-दुःख ब्रह्मा को नहीं हो सकते; क्योंकि सूक्ष्म के गुण स्थूल में जा सकते हैं।
प्रश्न- क्या जीवात्मा मन से स्थूल है, जो दुःख व सुख भोगता है?
उत्तर-जीवात्मा भी मन से सूक्ष्म है। उसके भीतर भी सुख-दुःख प्रवेश नहीं हो सकते; परंतु वह अपनी अल्पज्ञता से मन को अपना अनुभव कर लेता है। इस कारण मन के गुणों को अपने में अनुभव करता है। जिस प्रकार गृह जलने से मनुष्य दुःख मान लेता है, वास्तविक उसको दुःख नहीं हुआ।
प्रश्न- जबकि जीव और ब्रह्मा दोनों शरीर में रहते हैं, तो दोनों को दुःख-सुख होना चाहिए।
उत्तर- दुःख-सुख मिथ्या ज्ञान की संतान है; इस कारण सर्वज्ञ ब्रह्मा को तो मिथ्या ज्ञान हो नहीं सकता, कारण उसको सुख-दुःख भी नहीं हो सकते। अल्पज्ञ जीवात्मा को मिथ्या ज्ञान होता है, उसको सुख-दुःख भी होता है। संसार में देखा जाता है कि कोई वस्तु सुख-दुःख देनेवाली नहीं। जिस वस्तु का ठीक प्रयोग होगा, उससे सुख होगा जिसका उल्टा प्रयोग होगा, उससे दुःख होगा। सत्य, ठीक और उल्टा प्रयोग जीव करता है; ब्रह्मा नहीं।
प्रश्न- यदि मिथ्या ज्ञान से सुख-दुःख होता है, तो जीवात्मा में क्या मिथ्या ज्ञान होता है?
उत्तर- जीवात्मा अपनी मूर्खता से शरीर, प्राण और मन के धर्म को उपना समझकर दुःखी होता है। उदाहरण-हम भूख-प्यास को दुःख मानते हैं; क्या यह जीवात्मा के धर्म हैं? उत्तर मिलता है-नहीं; क्योंकि यह प्राणों का धर्म है। ऐसे ही प्रसन्नता और शोक भी मन के धर्म हैं। बुढ़ापा दुर्बलता और मृत्यु भी शरीर के धर्म हैं; क्योंकि मूर्खता से हम इनका अपना धर्म समझा करते हैं; इस कारण हमका दुःख होता है और ब्रह्मा सर्वज्ञ होने से इस मिथ्या ज्ञान को नहीं प्राप्त करता है; इस कारण दुःख-सुख भोग नहीं सकता है?
प्रश्न- कठोपनिषद् में लिखा है- जिसका ब्रह्मा (ज्ञान) और क्षेत्र (बल) दोनों भात (पके हुए चावल) होते हैं और मृत्यु उसकी चटनी है-यहाँ कौर लेना चाहिए ब्रह्मा-अग्नि या जीव-अग्नि?