सूत्र :अर्भकौस्त्वात् तद्व्यपदेशाच् च नेति चेन् न निचाय्यत्वाद् एवं व्योमवच् च 1/2/7
सूत्र संख्या :7
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (अर्भ कौकस्त्वात्) छोटी नाड़ी व स्थान होने से (तत्) जीव का (व्यापदेशः) कथन है व उपदेश है (न) नहीं (इतिचेत्) यदि ऐसी शंका हो (न) कोई दोष नहीं (निचाय्यत्वात्) देखने के स्थान से (एवम्) भी (व्योमवत्) आकाश की भाँति (च) भी।
व्याख्या :
भावार्थ- उस स्थान पर गीता का अर्थ ब्रह्मा ही से नहीं; क्योंकि ब्रह्मा के दर्शन की जगह हृदय स्थान है। जैसे-आकाश सर्व-व्यापक है; परन्तु छोटी-सी गोली में भी है; क्योंकि सर्व-व्यापक है। इस कारण वह प्रत्येक वस्तु के भीतर कहा जा सकता है। सूक्ष्म होने से जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश सब पृथ्वी पर पड़ता है; परन्तु देखने के लिये प्रतिबिम्ब दर्पण व स्वच्छ जल ही लेना पड़ता है और सूर्यग्रहण होता है, तो मनुष्य सूर्य प्रतिबिम्ब देखने के लिये एक पात्र में जल भरकर देखते हैं; ऐसे ही ऐसे ही ब्रह्मा सर्व-व्यापक है; परन्तु उसका दर्शन हृदयाकाश में ही हो सकता है।
प्रश्न- यदि प्रत्येक मन में ब्रह्मा है,तो जितने दुःख-सुख हैं, वह ब्रह्मा को भी होंगे; क्योंकि ब्रह्मा से उनका संयोग होगा।