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वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :अनुपपत्तेस् तु न शारीरः 1/2/3
सूत्र संख्या :3

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (अनुपपत्तेः) सिद्ध न होने से (तु) निश्चय के कारण कहा गया (न) नहीं (शारीरः) देहधारी।

व्याख्या :
भावार्थ- मनोमय आदि शब्द ब्रह्मा के साथ ही सम्बन्ध रखते हैं; उनका शरीर-धारी जीव के साथ संयोग युक्ति से सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि ब्रह्मा सत्य संकल्प है। इस कारण उसका ज्ञान नित्य होता है और जीव सत्य संकल्प है। इस कारण उसका ज्ञान नित्य होता है और जीव सत्य संकल्प नहीं; क्योंकि वह ज्ञान-स्वरूप नहीं, वरन् बाहर से ज्ञान को लेनेवाला है। उसके ज्ञान में भी न्यूनता और अधिकता होने से उसका ज्ञान सत्य अर्थात् सदैव एक-सा रहनेवाला नहीं कहा जा सकता; इसलिये श्रुति के बताते हुए शब्दों का अर्थ ब्रह्मा ही से पूर्ण हो सकता है। प्रश्न- ब्रह्मा, ईश्वर और जीव क्या तीन चेतन हैं? हमने आजतक एक ही चेतन सुना था; बहुधा पुरूष दो मानते हैं अर्थात् जीव और ब्रह्मा। उत्तर- वेदान्त की परिभाषा में तीन चेतन हैं-शुद्ध ब्रह्मा और जीव की दो अवस्थायें; एक बँधा हुआ, दूसरा मुक्त। प्रश्न- क्या प्रकृति वा कारण शरीर ब्रह्मा का भी शरीर है? उत्तर- यद्यपि ब्रह्मा उसमें रहता है; परन्तु ब्रह्मा उससे बड़ा है, इसलिये यह ब्रह्मा का शरीर नहीं कहला सकता; निदान कारण शरीर के संग सम्बन्ध देखनेवाले को ईश्वर और स्थूल, सूक्ष्म शरीर के संग सम्बन्ध रखनेवाले को जीव कहते हैं। प्रश्न- वेदान्ती तो उसका लक्षण और करते हैं अर्थात् माया उपाधि से जगत् बँधा हुआ ब्रह्मा ईश्वर है और अविद्या उपाधि से बँधा हुआ जीव है। उत्तर- वेदान्तियों की परिभाषा में प्रकृति का नाम माया और विकृति अर्थात् प्रकृति के कार्यों का नाम अविद्या है। इस कारण शुद्ध सत्यप्रधान, कारणउपाधि, मायाउपाधि, यह सब प्रकृति के नाम हैं। मलिन, सत्यप्रधान कार्य उपाधि माया से उत्पत्ति यह सब विकृति के हैं; क्योंकि स्थूल सूक्ष्म शरीर प्रकृति का कार्य होने से अविद्या कार्य आदि नाम से विख्यात है; इस कारण अर्थ सबब का एक है। प्रश्न- क्या माया प्रकृति का नाम है? इसमें कोई प्रमाण है? उत्तर- श्वेताश्तरोपनिषद्1 में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि माया प्रकृति का और महेश्वर माया के स्वामी का नाम है; क्योंकि मनोमय आदि कथन से सत्य संकल्प आदि परमात्मा के भीतर हो सकते हैं, जीवात्मा के नहीं। इस पर और युक्ति देते हैं।