सूत्र :कर्मकर्तृव्यपदेशाच् च 1/2/4
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (कर्म) हरकत वा जो किया जावे (कर्तृ) करनेवाला कर्म (व्यपदेशात्) उपदेश होने से (च) भी।
व्याख्या :
भावार्थ- क्योंकि कर्म का करनेवाला कर्ता बतलाया है; इस कारण जीवात्मा सत्य संकल्न नहीं हो सकता; किन्तु माननसिक चेष्टा अर्थात् इच्छा से किया हुआ कर्म सत्य नहीं हो सकता। इस कारण मनोमय आदि शब्द स्वाभाविक कर्ता परमात्मा के लिये आ सकते हैं; जीव तो कभी मन से काम लेता है, कभी नहीं।
प्रश्न- क्या जिस प्रकार आजकल मूर्ख मनुष्य बिना वेद शास्त्र पढ़े वेदान्ती बन जाते हैं; अथवा अविद्या का विद्या रख लेते हैं, व्यास ऐसे थोड़े ही थे? स्वामी शंकराचार्य भी इन सूत्रों के भाष्य में जीव-ब्रह्मा का भेद ही प्रकट करते हैं। व्यास और शंकर तो केवल ब्रह्मा को जगत्कर्ता सिद्ध करते हैं। चूंकि ब्रह्मा प्राप्ति रूप कर्म के कारण उपासना किया करता है; इस कारण जगत्कर्ता आदि नित्य कम तो परमात्मा के हैं और स्वाभाविक कर्म से जो कर्म किये जाते हैं, वह जीवात्मा में हैं। जीव ब्रह्मा के भेद में युक्ति देते हैं।