सूत्र :विवक्षितगुणोपपत्तेश् च 1/2/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (विवक्षित) विद्यमान (गुणोपपत्तेः) गुणों के प्रगट होने से (च) भी बक्ता इष्ट कहनेवाले ने जिस अभिप्राय से कहा हो।
व्याख्या :
भावार्थ- बिना किसी कसौटी के प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक शब्द का अर्थ ब्रह्मा नहीं लिया जाता है; किन्तु जिस इच्छा वा लाभदायक विचार के कारण वक्ता ने उस शब्द का प्रयोग किया है; वह ही अर्थ उससे लेना चाहिए। जहाँ उपादेय गुण (सिफत) की उपस्थिति पाई जावे, वहीं वक्ता का अर्थ उस शब्द से समझना चाहिए। जिस दशा में जगत्कत्र्ता का वर्ण वक्ता कर रहा हो उस अवस्थामें ब्रह्मा को किसी भी नाम से जगत् का कत्र्ता कहें, उस नाम को ब्रह्मा का पर्याय मानना पड़ेगा।
प्रश्न- वेद का अर्थ कैसे करोगे? क्योंकि उसका वक्ता कोई नहीं और न ईश्वर को कोई वस्तु उपादेय हो सकती है; क्योंकि उपादेय किसी न्यूनता के पूर्ण करनेवाले दोष के परे करनेवाले को कहते हैं। अतः ईश्वर में न तो न्यूनता है और न दोष; इस कारण उसके लिये कोई उपयोगी वस्तु नहीं हो सकती; अतः वेद में किस प्रकार अर्थ किया जावेगा?
उत्तर- वेद के बनानेवाले के उपयोगी न होने से अर्थ में कठिनता हो सकती है; परन्तु जिसके लिये वेद बनाया गया है, जो उसके उपयोगी हैं, उसमें उपचार से अर्थ हो सकता है। जैसे कहा जाता है कि पुष्प में खुश शब्द है, तो यहाँ खुश का सम्बन्ध गन्ध (बू) से है; परन्तु अचेतन गन्ध (बू) के भीतर प्रसन्नता (खुशी) हो नहीं सकती; इस कारण अर्थ यह करते हैं कि जीव के प्रान्न (खुश) करनेवाली गन्ध जब किसी वस्तु को खुशरंग कहतेहैं, वहाँ प्रसन्नता के सम्बन्ध रंग से होते हैं; परन्तु रंग जड़है, जिसमें प्रसन्नता हो नहीं सकती; इस कारण जीव प्रसन्न करनेवाला रंग कहते हैं। ऐसे ही वे के अर्थ उपचार से किये जा सकते हैं; निदान ऐसे स्थानों पर जहाँ उपासना का प्रकरण हो, जीव को आनन्द देनेवाले ब्रह्मा की उपासना ही लेनी चाहिए; क्योंकि बतलाने का उद्देश्य उस ब्रह्मा के गुण से है, जो स्पष्ट ढंग पर पाया जाता है।
प्रश्न- मनोमय अथवा प्राणमय आदि शरीर के बिना नहीं हो सकता, इस कारण ब्रह्मा क्या शरीर वाला है?