सूत्र :जीवमुख्यप्राणलिङ्गान् नेति चेन् नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वाद् इह तद्योगात् 1/1/31
सूत्र संख्या :31
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (जीवमुख्य) इस श्रुति में जीव मुख्य अर्थ है (प्राणलिंगात्) क्योंकि प्राण जीव का लिंग है (न) नहीं (इतिचेत्) यदि ऐसा हो (न) कोई नहीं (उपासात्रैविध्यात्) उपासना के तीन प्रकार होने से (आश्रितत्वात) उसके आश्रय रहनेवाले से (इह) इस जगत् में (तद्योगात्) उसका योग होने से।
व्याख्या :
भावार्थ- यदि जाहिरी तौर पर प्राण को जीव का लिंग माना जाता है; परन्तु वास्विक वह जीव का स्वाभाविक लिंक नहीं; क्योंकि जीव नित्य है और प्राण उत्पन्न हुआ है। किसी नित्य पदार्थ का स्वाभाविक लिंग उम्पत्तिमान पदार्थ नहीं हो सकता; किन्तु वह नैमित्तिक होने से अन्त में आया हुआ सिद्ध होता है और स्वाभाविक का उसके संग होना सदैव आवश्यक है। यदि जीव का लिंग प्राण मान भी लिया जावे; तो भी यहाँ ब्रह्मा का ग्रहण करने में कोई दोष नहीं; क्योंकि तीन प्रकार की उपासना होती है और उपासना की अवस्था में उसके गुण अपने में देखकर अपने को उपचार से वह कह सकते हैं।
प्रश्न- तीन प्रकार की उपासना कौन सी हैं?
उत्तर- समाधि, सुषुप्ति और मुक्ति। तीन अवस्थाओं में जीव ब्रह्मा की उपासना करता है। उस समय ब्रह्मा के आशय और उससे संयोग हुआ देखकर उसके आनन्द गुण को अनुभव करता हुआ जीव अपने ब्रह्मा कह सकता है, अतः उपनिषद् में प्राण शब्द से ब्रह्मा कह देना दोष नहीं उत्पन्न करता।
प्रश्न- बहुत-से मनुष्य तो तीन प्रकार की उपासना इस भाँति मानते है-पहले प्राण-धर्म से दूर, प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि-धर्म से और तीसरे शरीर अर्थात् आयु-धर्म से।
उत्तर- यह तीन भी वह ही हैं, केवल नाम मात्र भेद है। जिसका नाम समाधि है, वह प्राण-धर्म से उपासना है; क्योंकि जीव ब्रह्मा की दूरी तीन प्रकार की हो सकती है। अर्थात् जिस समय प्राणों के द्वारा इन्द्रियों से कर्म लेता है, तो उसकी वृत्ति परे चली जाती है; इस कारण उस प्राणों का धर्म जीव को ब्रह्मा से पृथक करता है। इसलिये जब प्राणों को रोककर समाधि होती है, तो प्राण धर्म से जो दूरी थी, वह दूर हो जाती है। दूसरे जब जीवात्मा बुद्धि से बाहर की वस्तुओं को विचारता है, तो उसकी ब्रह्मा वियोग और बाहर का ज्ञान होता है; इस कारण जाग्रत और स्वप्न अवस्था में जीव और ब्रह्यं में बुद्धिधर्म की दूरी होती है; अस्तु जब सुषुप्ति अवस्था में बुद्धि के वाह्यविचार लुप्त हासे जाते हैं, तब वह दूरी दूर हो जाती है; इस कारण यह बुद्धि धर्म से रहित उपसना हुई। तीसरे जब तक शरीर से जीव को उसकी रक्षा के कारण वाह्य-वस्तुओं के साथ सम्बन्ध करना पड़ता है; तब तक वह शरीर धर्म की दूरी है; अतः जब मुक्ति में शरीर के नाश हो जाने से शरीर का झगड़ा नहीं रहता, तब वह दूरी हो जाती है।
प्रश्न- जबकि लिंग है, इस कारण जीव प्राणीमात्र का नाम है।
उत्तर- प्राण दो प्रकार के हैं-एक सामान्य और दूसरे मुख्य। सामान्य प्राण तो प्रत्येक पदार्थ में रहते हैं; जैसे-सूर्य का प्राण चन्द्रमा रवि नाम से प्रसिद्ध किया गया है। अब सामान्य प्राण तो प्रत्येक जड़ और चेतन पदार्थ में रहते हैं, जिससे पदार्थ के 6 विकार अर्थात् उत्पन्न होना, बढ़ना, एक सीमा तक बढ़कर 6 विकार अर्थात् उत्पन्न होना, बढ़ना, एक सीमा तक बढ़कर रूक जाना, आकृतियें परिवर्तन करना, घटना नाश होना पाया जाता है; परन्तु विशेष प्राण उन शरीरों में रहते हैं, जिसमें जीवात्मा रहता है; जिससे मानसिक चेष्टा होती है। जिस प्रकार के विचार जीवात्मा करता है, उसी प्रकार के पा्रण करते हैं; अतः पाद में व्यासजी ने 31 सूत्र बनाये, जिनमें से प्रथम में तो कुल क्र्शन के उद्देश्य बतलाये; दूसरे सूत्र में ब्रह्मा को चित् सिद्ध किया; तीसरे सूत्र से ग्यारहवें सूत्र तक ब्रह्मा को चित् सिद्ध किया; बारहवें सूत्र से इक्कीसवें तक जीव के आनन्द-स्वरूप होने का खंडन और जीव-ब्रह्मा का भेद सिद्ध किया और शेष दस सूत्रों में उपनिषयों के अंदर जहाँ आकाश, प्राण आदि बतलाया गया है, उनको ब्रह्मा का नाम ही बबतलाया। अब इस पाद से स्वयं स्पष्ट है कि आजकल मायावादी ब्रह्मा को अभेद प्रकट करते हैं, वह वास्तविक सत्य नहीं।
व्यास सूत्र उपनिषद् में ब्रह्मा का भेद बतलाते हैं। अब आगामी पाद में पूर्व पाद का समर्थन युक्ति से प्रस्तुत करेंगे और अन्य उपनिषद् वाक्यों की संगति भी करते जाएँगे।