सूत्र :न वक्तुर् आत्मोपदेशाद् इति चेद् अध्यात्मसंबन्धभूमा ह्य् अस्मिन् 1/1/29
सूत्र संख्या :29
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (न) नहीं (वक्तुरात्मोपदेशात्) कहने वाले अपने उपदेश करने से (इति चेत्) यदि ऐसा माना जावे (अध्यात्मसम्बन्ध) आत्मा के अन्दर रहनेवाला (भूमा)परमात्मा है (हि)निश्चय करने के (अस्मिन्) उस स्थान पर व उस विषय में।
व्याख्या :
भावार्थ-यह कथन कि कहनेवाले इन्द्र ने उस स्थान जानने के कारण अपने आत्मा का उपदेश किया; इस कारण जीवात्मा लेना उचित है, सत्य नहीं; क्योंकि आध्यात्मिक सम्बन्ध से इन्द्र के आत्मा के भीतर रहनेवाला ब्रह्मा ही उस स्थान पर लिया गया है; क्योंकि जीवात्मा अनेक हैं; उनमें से किसी एक के जानने से मुक्ति नहीं हो सकती। ब्रह्मा एक है उसके जानने से मुक्ति होती है।
प्रश्न- जबकि इन्द्र स्पष्ट शब्दों में कहता है कि तू मुझको ही जान, मैं प्राण हूँ, मैं बुद्धि का आत्मा (फायल बिल इरादा) हूँ उस अहंकार को देखकर न तो प्राणवायु लिये जा सकते हैं और न यह अहंकार हो; केवल ब्रह्मा ही लिया जाता है।
उत्तर- प्रत्येक आचार्य अभेद उपासना के ढंग पर अपने चेलों को ऐसा ही उपदेश करते हैं, जैसाकि श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को उपदेश किया और भी ऋषियों ने कहा है। इस कारण सबके संग सम्बन्ध होने से यह आध्यात्मिक संयोग सर्व-व्यापक परमात्मा के लिये ही हो सकता है अर्थात् प्रत्येक जीव की पृथक्-पृथक् मुक्ति किस प्रकार हो सकती है और बतलाया यह गया है, जो सबसे अधिक उपयोगी है, जिसको सांख्य- दर्शन के कर्ता महर्षि कपिन ने सांख्य के अन्दर विवाद करते हुए भी सिद्ध किया है कि मोक्ष का सुख सब सुंखो से अधिक है, उपनिषदों के अंदर भी ब्रह्यानन्द को सबसे अधिक स्वीकार किया गया है, इन्द्र के आनन्द से भी ब्रह्मा आनन्द1 करोड़ों भाग अधिक है; इस कारण मोक्ष की प्रशंसा यह की गई है कि बीज सहित दुःख का दूर होना और परमानन्द का प्राप्त होना; अतः आनन्द की सीमा परमानन्द से आगे नहीं। इसलिये जब इन्द्र उसको यह कहता है कि जो सब से अधिक उपयोगी है, तो स्पष्ट अर्थों में मुक्ति अथात् ब्रह्मा आनन्द की प्राप्ति को स्वीकृत करता है और ब्रह्मा की प्राप्ति केवल ब्रह्मा के जानने से होती है; इसलिये इन्द्र का अर्थ अपने आत्मा अर्थात् जीव के भीतर रहनेवाले ब्रह्मा से है।
प्रश्न- किसी ने और जगह भी अहंकार के साथ ब्रह्मा का उपदेश किया है?