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वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् 1/1/30
सूत्र संख्या :30

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (शास्त्रदृष्टया) शास्त्र की दृष्टि से (तु) तो (उपदेशाः) उपदेश किया है (वामदेववत्) वामदेव की भाँति।

व्याख्या :
भावार्थ- क्योंकि इन्द्र के अन्दर पूर्व-जन्म के संस्कार विद्यमान थे, यहाँ उसने सुना हुआ था कि ब्रह्मा आत्मा के अन्दर है, इस कारण वह जीव से दूर नहीं। जैसे बसमदेव ऋषि ने वृहदारण्यक2 उपनिषद् में अपने आपको ब्रह्मा कहा है; ऐसे ही इन्द्र ने भी अभेद उपासना के ढंग पर कहा है। प्रश्न- क्या वामदेव, इन्द्र वा कृष्ण को अपने को ब्रह्मा कहना उचित है; क्योंकि बुद्धि से तो अविद्या प्रतीत होती है? उत्तर- दो प्रकार से कहना उचित हो सकता है-एक तो जीव के अन्दर ब्रह्मा है, जिसको मूर्खजन यह जानने के कारण जगत् में टक्कर मारते हुए ब्रह्मा की खोज करते हैं। यदि वह अपने को ब्रह्मा समझ कर अपने स्वरूप में ब्रह्मा की खोज करें, तो अवश्य अन्दर ब्रह्मा मिल जायेगा। अतः बाहर की खोज से छुड़ाकर अन्दर की खोज में लगाने के कारण। दूसरे मुक्ति जीव व समाधि करनेवाला योगी ब्रह्मा के आनन्द को नैमित्तिक आनन्द से सत्चित् स्वरूप को ब्रह्मा अर्थात् कुछ देर के कारण सच्चिदानन्द-भाव को प्राप्त कर सकता है, तो उस समय उपचार से कह सकता है कि मैं ब्रह्मा हूँ; परन्तु वास्त में उसमें ब्रह्मा का गुण नैमित्तिक आया होता है; इस कारण वह ब्रह्मा से परे होता है। ऐसे ही इन्द्र ने ब्रह्यानन्द की अवस्था में मग्न होकर यह कहा कि तू मुझको जान, जिससे जाननेवाला जब जीव को जानेगा, तो उसको ब्रह्मा का ज्ञान स्वयम् हो जावेगा। जैसे-किसी के नेत्र में सुर्मा हो और वह कहे कि चक्षु को देख, तो आँख से नेत्र की भीतरवाले सुर्मा का ज्ञान अवश्य हो जायेगा; परन्तु वास्तव में नेत्र और सुर्मा पृथक वस्तुऐं हैं। एक दूसरे के अन्दर होने से एक के देखने का ज्ञान हो सकता है; जैसे-किसी लोहे के गोले में अधिक अग्नि भर रही है,तो अधिक गर्म से वह अग्नि रूप ज्ञान होता है। यदि किसी को कहे कि गोले को उठा ले, तो उसके संग अग्नि भी आयेगी। ऐसे ही उपासना के ढंग से योगी-जनों ने यहद कहा है,तो कोई दोष नहीं; परन्तु मुर्ख जन जो बिना स्वरूप के ज्ञान के केवल सुने-सुनाये शब्दों से अपने को ब्रह्मा कहते हैं, यह महापाप है। प्रश्न- क्या समाधि अथवा मुक्ति में जीव को ब्रह्मा-रूप हो जाता है और उसका जीवपन दूर हो जाता है? उत्तर- निश्चय समाधि और मुक्त दशा में जीव में ब्रह्मा के सम्बन्ध से नैमित्तिक आनन्द गुण प्राप्त हो जाता है; परन्तु जीवपन दूर नहीं होता। जैसे-लोहे को अग्नि में डालने से वह लाल अथवा गर्म हो जाता है जो अग्नि का स्वरूप है; परन्तु लोहापन उससे दूर नहीं होता; किन्तु उस अग्नि के तेज से छिपा रहता है। प्रश्न- लाल अथवा गर्म लोहे में अग्नि के गुण जलाना आदि तो विद्यमान होते हैं; लोहपन का कौन गुण उसमें पाया जाता है? उत्तरर्- अिग्न में बोझ नहीं; परन्तु लोहे का गोला अग्निरूप होकर भी बोझ अर्थात् वनज-रहित नहीं होता; इस कारण अग्नि नैमित्तिक गुण आ जाने पर भी उसका स्वाभविक गुण, जो बोझा है; वह दूर नहीं होता। प्रश्न- उस समय जीव जीव का कौन-सा गुण विद्यमान होता है, जिससे कहा जावे कि उसमें जीवपन विद्यमान है? उत्तर- जीव का स्वाभाविक गुण जो अल्पज्ञता (कमइल्मी) है, वह समाधि अथवा मुक्ति की अवस्था में भी विद्यमान होती है। प्रश्न- आचार्य लोग तो कहते हैं कि समाधि अवस्था में जीव सर्वज्ञ हो जाता है और मुक्ति बिना तत्त्व-ज्ञान के हो नहीं सकती? उत्तर- वास्तव में समाधि की अवस्था में जीव को प्रत्येक पदार्थ के जानने की शक्ति हो जाती है और मुक्ति की दशा में तत्त्वज्ञान अवश्य होता है, परन्तु अल्पज्ञता उस समय भी विद्यमान रहती है। प्रश्न- ब्रह्मा के सर्वज्ञ (आलिमुल्कुल) होने में अथवा योगी के सर्वज्ञ होने में क्या भेद है? उत्तर- ब्रह्मा सर्व-व्यापक होने से एक ही काल में सब वस्तुओं को जानता है और योगी में जानने की शक्ति होती है। वह जिस वस्तु को जानना चाहे, उसको जान सकता है। एक ही समय में सबकी नहीं जानता। प्रश्न- क्या तत्त्वज्ञान की अवस्था में अल्पज्ञता रह सकती है अर्थात् मुक्ति की दशा में जब जीव प्रत्येक वस्तु की स्थिति अर्थात् वास्तविकता को जानता है, उस समय भी अल्पज्ञता जो उसका स्वाभाविक गुण है, विद्यमान रहती है। उत्तर- तत्त्वज्ञान अल्पज्ञता का विरोधी नहीं; किन्तु उलटे ज्ञान, भ्रमात्मक-ज्ञान का विरोधी है; इस कारण उलटा ज्ञान, भ्रमात्मक-ज्ञान और तत्त्वज्ञान और अल्पज्ञता दोनों एक साथ रह सकते हैं। यदि जीव का गुण मिथ्याज्ञान होता है, तो उससे तत्त्वज्ञान हो नहीं सकता; इस कारण उसका गुण अल्पज्ञान (कमइल्मी) है। वह प्रत्येक अवस्था में उसके संग रहती है। प्रश्न- जब अल्पज्ञ जीवात्मा सर्वज्ञ ब्रह्मा की उपासना करता है, तो ब्रह्मा के प्रकाश से प्रत्येक वस्तु को सत्य ज्ञान होता है और जब प्रकृति के ज्ञान से रहित होने से ज्ञान पर आवरण आ जाने से उलटा ज्ञान आ जाता है। जिस प्रकार नेत्र में थोड़ी दूर तक देखने की शक्ति है; जब सूर्य के प्रकाश से चक्षु देखता है, तो उसको रूप का सत्य ज्ञान होता है और जब थोड़े अन्धकार में देखता है, तो उसको उलटा ज्ञान अथवा भ्रम होता है। जैसे ठूँठ में मनुष्य का ज्ञान और रज्जु में सर्प का ज्ञान आदि। अतः जबकि मुक्ति का कारण तत्त्वज्ञान है और वह ब्रह्मा की उपासना के बिना हो नहीं सकता; इस कारण तत्त्वज्ञानी मनुष्य यदि उपचार से अपने को ब्रह्मा कह दे, तो वास्तव में जीव ब्रह्मा एक नहीं हो सकता। प्रश्न- इस श्रुति में तो ब्रह्मा अर्थ करना उचित नहीं; जीव ही मुख्य अर्थ लेना चाहिये; क्योंकि उसका लिंग प्राण विद्यमान है।