सूत्र :प्राणस् तथानुगमात् 1/1/28
सूत्र संख्या :28
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ – प्राण से अर्थ ब्रह्या है ऐसा ही नतीजा निकालने होने से ।
व्याख्या :
भावार्थ - यद्यपि प्रथम भी बतला चुके हैं कि प्राण शब्द ब्रह्य के लिये ही आया । यहाँ भी प्राण का शब्द ब्रह्य के लिये ही आया है; क्योंकि इस स्थन पर प्राण को आनन्द अलर, अमर बताया है। अब प्राण वायु अर्थात् श्वास तो अमर नही ; क्योकि वह अग्नि व वायु द्वारा उत्पन्न होते है और उत्पन्न हुई वस्तु नाशवानी होने से, अमर नही हो सकती। जीवात्मा व ज्ञानआत्मा कहने से ले सकते है; परन्तु पीछे सिद्ध कर चुके हैं कि जीवात्मा आनन्दस्वरूप नही निदान ब्रह्य ही लेना उचित है।
प्राश्न - क्योंकि मुक्ति में जीव में भी आनन्द होता है; अस कारण जीव लेना उचित है; क्योकि इन्द्र आदि जीव है।
यद्यपि ऐसे स्थान पर ऐसे शब्द है कि जिनसे जीव और प्राण भी लिये जा सकते है; परन्मु सारे विषय पर विचार करने से अर्थ ब्रह्य निकलता है; क्योंकि इन्द्र ने वृत्रासुर से कहा है कि मुझसे वर माँग अर्थात् जो कुछ तेरी इच्छा हो, वह प्रकट कर। उसके उत्तर में वह कहता है कि जो मेंरे लिये सबसे उपयोगी हो; अत- सबसे उपयोगी ब्रह्य ही है; क्योकि वेद ने बताया है कि उस ब्रह्य को जानने से मुक्ति होती है। मुक्ति कं लिये सिवाय ब्रह्य के जानने के दूसरा साधन नही जो मुझको जानता है उसे कोई कर्म भी नही लगता। यह भी ब्रह्य के जानने पर ही हो सकता है; ऐसे ही और भी अनेक शब्द है; जिससे विश्वास हो जाता है कि वहाँ प्राण से अर्थ ब्रह्य ही का है।
प्रश्न- क्योंकि इन्द्र कहता है कि मुझको जान; इस कारण प्राण का अर्थ बह्य करना उचित नहीं?