सूत्र :छन्दोऽभिधानान् नेति चेन् न तथा चेतोऽर्पणनिगदात् तथा हि दर्शनम् 1/1/25
सूत्र संख्या :25
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : भावार्थ - गायत्री मन्त्र द्वारा ब्रह्य से प्राथना ही गई है। कि वह हमारी बुद्धि को प्रेरणा करे दुष्टकर्मों से हटाकर शुभ कर्मों की और लगाये व पकृति ही और से हटाकर आत्मा की और चलाये। इस कारण गायत्री शब्द भी उपचार से ब्रह्य ही का वाचन अर्थात बतलाने वाला विचार करना उचित है; क्योकि अचेतन छनद मे जगत को उत्पन करने और नाश करने की शक्ति नही। जहाँ नाश और उत्पत्ति का वर्णन आयेगा, वहाँ करता ब्रह्य ही को लेना पडद्वेगा।
व्याख्या :
प्रश्न - क्या कारण है कि प्रत्येक स्थान पर तहीँ कर्ता प्रकट करना हो, वहीँ केवल ब्रह्म ही को लेना चाहिये?
उत्तर - जब प्रदार्थों के अन्दर तीन प्रकार की शक्ति करने , न करने और उलटा न करने की हो नही सकती; इसलिये जहाँ जगत के कर्ता का किसी शब्द से उच्चारण किया जावे,वहाँ वह शब्द केवल सर्वज्ञ, चेतन और सर्व व्यापक ब्रह्य को ही प्रकट करेगा।
प्रश्न - क्या चेतन जीवात्मा कर्ता नही ?
उत्तर - जीवात्मा औजारो के बिना कुछ नही कर सकता; जैसा की उसके लक्षण न्याय के विद्वान करते हैं कि वह चेतन स्वरूप है नीदान जीवात्मा सृष्टि करता नही हो सकता; क्योकि वह सृष्टि मे औजार लेकर कर्म कर सकता है ज बवह जीवात्मा के पास शरीर इन्द्रिय पन आदि न हो तब तक वह कुछ कर्म नही कर सकता और जब तक शरीर को कोई न बनावे, वह स्वयं बनकर जीवात्मा को करने में सहायता नही दे सकता शरीर हो तो जीव क्रम करे और शरीर को बनाने वाला हो, तो शरीर बने; इस कारण ब्रह्य के अतिरिक्त और जगत् कर्ता कोइ्र्र नहीं।
प्रश्न - यदि जीव को जगत् बनाने के कारण शरीर की आवयश्कता है तो ब्रह्य को क्यो नहीं ,
उत्तर - क्योकि ब्रह्य सर्व व्यापक है उससे बहार कोई वस्तु नहीं और इन्द्रियें बहार की वस्तुओ को ही जान सकती है; अस कारण जीवात्मा शांत होने से इन्द्रियों के बिना कर्म नही कर सकता है; परमात्मा अनन्त होने से इन्द्रियों के बिना कर सकता है; क्योकि भीतर कर्म करने के लिये किसी इन्द्रिय व औजार की आवयश्कता नहीं।
प्रश्न - क्या इसमें कोई प्रमाण है कि वेदो और उपनिषदो ने इस प्रकार शब्द और हो, अर्थ ओर लिया हो ?
उत्तर - जिस प्रकार ब्रह्य को वेदो ने चार पारवाला बतलाया और उससे एक पाद अर्थात भाग में सब जगत बताया है ऐसे ही गायत्री मंत्र भी 62 अक्षरो वालेचार पाद रखता है। इसी प्रकार और स्थान भी गणना समानता से एक शब्द दुसरे अर्थ का वरर्ण करता देखा जाता है। जैसे ज्योतिषवाले चार गणना के स्थान वेद वाले देते है; क्योकि ज्योतिष की तिथियों में वेद कोई तिथि नहीं, इस कारण वेदो के चार होने से वेद शब्द से चार (संख्या) का ग्रहण कर लिया जाता है।
प्रश्न -क्सा वेद ने ब्रह्य को चार पाद् अर्थात् भागों में विभक्त किया है ? यह तो निरा अनर्थ है।
उत्तर - यजुर्वेद के मंत्रो में बतलाया है कि ब्रह्य के प्रथम पाद में तो जगत सब भूत है और त्रिपरद इससे पृथक् है; जिस का अर्थ यह है कि मूर्ख जन बुद्धि की हीनता से यह न समझ लें कि ब्रह्य जगत तुल्य है; किन्तु वह उससे भी बहार हैं।
प्रश्न - बुद्धि किस प्रकार स्वीकार कर सकती है ब्रह्य जगत के अतिरिक्त भी है।
उत्तर - जगत् का कारण प्रकृति केवल सत्य है और ब्रह्य के तीन गुण चित, आनन्द और सत्ता स्वतन्त्रता उससक पृथक है; इस प्रकार ब्रह्य चार पाद वाला है, निदान उपनिषद् के इस वाक्य में ब्रह्य ही लिया गया है; गायत्री छनद नही लिया गया।
प्रश्न - यदि गायत्री छन्द में ही पाद होते है, तो ब्रह्य ही ले सकते है; परन्तु पाद तो भुत के भीतर भी बतलाये गये हैं।