सूत्र :ज्योतिश् चरणाभिधानात् 1/1/24
सूत्र संख्या :24
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ -(ज्योतिः) आकाश का (चरण) साधन (अभिधानात् ) बतलाये जाने से।
व्याख्या :
भावार्थ – बहुत स्थानो पर ज्योतिः अर्थात प्रकाश के नाम से भीब्रह्य बताया गया है; जैसा कि अपनिषदों में लिखा है।
प्रश्न - अब इस सुर्य से परे जो प्रकाश प्रकाश करता है, जो विज्ञानियों के विज्ञान के भीतर, सब उत्तम और नीच मनुष्य के अन्दर ज्योति है; क्या यह ज्योति ब्रह्य की है अथवा अग्नि सुर्य आदि की है ?
उत्तर - उस स्थान पर ब्रह्य का कोई लिगं तो प्रत्यक्ष तथा विद्यमान नही होता, जिससे ब्रह्य ले सके; परन्तु जीव आत्मा के अन्दर भौतिक अग्नि व सूर्य की ज्योति नही जा सकती; इस कारण बह्य की ज्योति ही लेना उचित है अर्थात् पुरूष के भीतर जो ज्योति है, वह केवल ब्रह्य का ही प्रकाश है।
प्रश्न -क्या पुरूष के भीतर प्रकृति का प्रकाश नही जा सकता ?
उत्तर - यह नियम है कि स्थूल के अन्दर सूक्ष्म के गुण चले जाते है; परन्तु सूक्ष्म के अन्दर स्थूल के गुण नही जा सकते; क्योकि पुरूष प्रकृति से सूक्ष्मं है, इस कारण प्रकृति के गुण पुरूष में नही जा सकते।
प्रश्न - यदि पुरूष के भीतर प्रकृति के गुण नही जा सकते, तो प्रकृति की उपासना से पुरूष को दुख कैसे हो सकता है ? क्योकि दुख स्वरूप प्रकृति है; वह पुरूष के अन्दर जा नही सकती। गुणी और गुण का सम्बन्ध हैं कि जहीँ गुणी जायेगा; बिना गुणी के अन्दर गये दुख जोउसका गुण है, किस प्रकार जीवात्मा में प्रवेश कर सकता है ?
उत्तर - मन प्रकृति का कार्य होने से स्थूल है, इस कारण प्रकृति का गुण जो दुख है, वह मन के भीतर समा जाता है; जीवात्मा अपनी अल्पज्ञता से मन में अहंकार रखता है, इस कारण मन के गुण को अपने में स्वीकार करता है और चेतन का संबंध अहंकार से ही होता है, इस कारण जिस प्रदार्थ में अहंकार होता है उसकी हानि-लाभ को जीव अपने में मानता है।
प्रश्न - क्या जीव को दुख सुख नही होता; किन्तु अज्ञान सक जीव अपने में मानते हैं ?
उत्तर - दुख और सुख तो जीवन में औपाधिक गुण होते है। केवल थोड़ी शिक्षा के कारण जीव अपने में विचार करता है। आनन्द नैमित्तिक गुण होता है, जो जीव के अन्तकरण में है और निवास करने वाले ब्रह्म से प्राप्त होता है।
प्रश्न - यह किस प्रकार सम्भव है कि मन को दुख हो और जीव उसको अपने में स्वीकार करे ?
उत्ता - यह तो संसार में प्रत्यक्ष है जिस प्रदार्थ में अहकार होता है, उसी के दुख को आत्मा अनुभव करता है जैसे - किसी का धर अग्नि के भेंट हो जावे,तो अति दुख होता है, यदि परन्तु दो धन्टे भस्त से पूर्व उसने वह धर बेच दिया हो; तो उसको कोई आपत्ति नही होती और क्या कारण है कि उस बुद्धिमान से बुद्धिमान विलाप करने लगते है ? इसी कारण सब शास्त्रकारो ने स्वीकार किया है कि जीवात्मा मन के अनुसार होता है जैसी मन की वृत्ति होती है, वैसा ही जीव अपने को जानता है
प्रश्न - संसार में ज्योति दो प्रकार की है-प्रथम स्वयं प्रकाश दूसरी परप्रकाश। जब विचार कर देखते है, तो प्रथम दीपक का प्रकाश प्रतीत होता है, परन्तु वह प्रकाश सूर्य से उत्पन्न हुआ है। इस कारण दीपक स्वतः प्रकाश विचार करता है। तब जब सोचता है कि सूर्य अग्नि के परमाणुओ के सहयोगं से बना है, प्रज्ञाचक्षु को सूर्य से दिखाई नही देता तब मालुम करता है कि सूर्य भी स्वतः प्रकाशित नही और तब चक्षु को स्वतः प्रकाश स्वीकार करता है। जब देखता है कि यदि मन का चक्षु इन्द्रियो से संबंध न हो तो वह खुले नेत्रो से भी नही देख सकता, तो इससे विचार उत्पन्न होता है की चक्षु स्वतः प्रकाशशील नही और बिना नेत्रो के भी बहुत से मनुष्य ज्ञानी दिखाई पड़ते है; इसलिये निश्चय हो जाता है कि मनस्वतः प्रकाशशील है; परन्तु जब जीवात्मा सुषुप्ति की दशा में मगन कर जाता है, तो तन किसी अवस्था में भी कुछ नही मालुम करता। इस लिये विचार उत्पन्न हो जाता है कि मन भी स्वतः प्रकाशित नही; किन्तु जीवात्मा स्वतः प्रकाशित है; जिसकी शक्ति से मन प्रकाश करता है। जब जीवात्मा को देखते है कि बिना यंत्रो के कुछ नही जान सकता, तो यन्त्र उसके अधिकार में नही अस कारण पता लगता है कि जीवात्मा भी स्वतः प्रकाशित नही; किन्तु जो जीव को यंत्र देकर जानने और करने योग्य बनाया है, वह प्रकाश स्वरूप आत्मा है। इस कारण शेष वस्तुओ में तो ज्योति परमात्मा के देने से आती है और परमात्मा ज्योति स्वरूप है। इसलिये पुरूष के अन्तः करण में जो ज्योति है वह परमात्मा ही है।
प्रश्न - उपनिषदों में लिखते है कि यह सर्व भुत जो कुछ है, वह सब कुछ गायत्री है। क्या उससे छन्दजगत का कारण सिद्ध नही होता ?