सूत्र :आकाशस् तल्लिङ्गात् 1/1/22
सूत्र संख्या :22
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ-(आकाशः) आकाश ब्रह्म का नाम है (तत्) उसका (लिड्डात्) चिह होने से।
व्याख्या :
भावार्थ-छान्दोग्य उपनिषद् में जहाँ आकाश शब्द से जगत् की उत्पत्ति बतलाई है, वहाँ आकाश ब्रह्म का अभिप्राय है; क्योंकि वहाँ बतलाया गया है कि सब भूत आकाश से उत्पन्न हुए। जब सब भूत आकाश से उत्पन्न हुए, तो आकाश एक भूत है। इस कारण वह भी उत्पन्न हुआ। निदान यहाँ आकाश शब्द ब्रह्म ही का नाम है।
प्रश्न-जब आकाश से वायु, अग्नि, जल अथवा पृथ्वी की उत्पत्ति लिखी है, तो छान्दोग्य में आकाश का अर्थ भूत आकाश क्यों न लिया जावे; क्योंकि भूत आकाश प्रसिद्ध है; परन्तु ब्रह्म का नाम भी विभुत्व आदि गुणों के होने से आकाश हो; परन्तु प्रसिद्ध भूत आकाश को छोड़कर दूसरा अर्थ लेना उचित नहीं।
उत्तर-दूसरी जगह श्रुतियों ने स्पष्ट शब्दों में बताया है कि ब्रह्म से ही सब भूत उत्पन्न हुए हैं; जिससे स्पष्ट ज्ञान होता है कि भूतों की उत्पत्ति का कारण ब्रह्म है; इसलिये आकाश से उत्पत्ति लिखी है और ब्रह्म का लक्षण ही यह है कि जिससे सर्वदा भूत उत्पन्न हो; अतः वहाँ आकाश शब्द से ब्रह्म ही लेना उचित है। इसमें ब्रह्म का लक्षण उत्पन्न करनेवाला पाया जाता है और जहाँ आकाश से उत्पत्ति बतलाई है, वहाँ आकाश को भी उत्पत्ति आत्मा से बताई है, जिसका अर्थ स्पष्ट है कि आकाश में स्वयं हरकत होती है; वह दूसरी गाड़र कसे हरकत देती है और वह तीसरी को। यदि इस स्थान पर गाड़ी को गाड़ी हरकत देती दृष्टि पड़ती है; परन्तु वास्तविक हरकत इंजिन की है; अतः उत्पत्ति आत्मलिंग होने से ब्रह्म ही आकाश शब्द से लेना उचित है। सिवाय चेतन ब्रह्म के जगत्कर्ता कोई नहीं हो सकता।
प्रश्न-बहुत जगह प्राणों से जगत् की उत्पत्ति लिखी है।