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वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :अस्मिन्न् अस्य च तद्योगं शास्ति 1/1/19
सूत्र संख्या :19

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (अस्मिन) इस प्रकृति में (अस्य) इसका (च) और (तद्योग) उसका योग अर्थात् मिलाप (शास्ति) बतलाया गया है।

व्याख्या :
भावार्थ- उस प्रकृति और जीव में आनन्दमय शब्द का अर्थ नहीं; किन्तु ब्रह्म में ही हो सकता है, क्योंकि यदि प्रकृति और जीव आनन्दस्वरूप् होते, तो संसार में कोई जीव आनन्द से रहित न होता। इस कारण बंधन अथवा मुक्ति की व्यवस्था ही नहीं रहती। अतः मुक्ति के लिए ब्रह्म का योग बतलाया है, प्रकृति की उपासना से बंधन का उपदेश किया है और ब्रह्म का लक्षण बतलाया गया है कि जिसमें आनन्द के सिवाय दुःख नहीं है। दुःख को तो न इन्द्रियों से अनुभव करता है न वेद के उपदेश में ब्रह्म के भीतर दुःख सुना जाता है और न युकितयों से ब्रह्म में दुःख का ज्ञान होता है; इस कारण ब्रह्म भूमा है और उसमें दुःख का लेश नहीं। आनन्द की अधिकता से अर्थ आनन्दस्वरूप का है। जैसे अग्नि में उष्णता की अधिकता है, उसमें कदापि शीतलता आ ही नहीं सकती; ऐसे ही ब्रह्म में दुःख नहीं आ सकता। प्रश्न- ब्रह्म में दुःख क्यों नहीं आ सकता ? उत्तर- दुःख परतंत्रता है, जो इच्छा और रोग के होने से होता है। राग लाभदायक और अप्राप्त वस्तु का होता है। ब्रह्म को तो न कोई वस्तु लाभदायक है और न अप्राप्त है; क्योंकि लाभदायक दो प्रकार की वस्तुयें होती है-एक जो दोष को दूर करे, दूसरी जो न्यूनता पूरी करे; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और पूर्ण है; इस कारण ब्रह्म के लिये कोई वस्तु लाभदायक नहीं और अप्राप्त भी नहीं; क्योंकि उसमें कोई वस्तु दूर नही। दूरी तीन प्रकार की होती है-प्रथम देश से, दूसरी काल से और तीसरी ज्ञान से। ब्रह्म के सर्व-व्यापक होने से कोई पदार्थ देश के कारण उससे दूर नहीं हो सकता; ब्रह्म सर्व काल में है अतः कालकृत दूरी भी उसमें नहीं और सर्वज्ञ होने से कोई वस्तु ऐसी नहीं; जिसको ब्रह्म न जानता हो; अतः ज्ञानकृत दूरी भी नहीं। अतः न तो ब्रह्म में इच्छा और न उसमें रूकावट, फिर दुःख कैसे उत्पन्न हो सकता है। इस कारण ब्रह्म ही आनन्दस्वरूप है। जीव-ब्रह्म के भेद और ब्रह्म के आनन्दमय होने में और युक्ति देते हैं।