सूत्र :भेदव्यपदेशाच् चान्यः 1/1/21
सूत्र संख्या :21
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (भेदन्यपदेशात्) श्रुतियों में जीव और ब्रह्म का भेद बतलाया जाने से (च) और (अन्यः) जीव और ब्रह्म पृथक् वस्तु हैं।
व्याख्या :
भावार्थ- शरीर के अभिमानी जीवों से भिन्न ब्रह्म है, जो सब जीवों का अन्तर्यामी है; सूर्य आदि सब भूमण्डलों का अन्तर्यामी अर्थात् उनकी नियमानुसार चलानो वाला है; अग्न्यादि पंचभूतों का अन्तर्यामी अर्थात् उनकी शक्ति देनेवाला है, इस कारण जीव अथवा प्रकृति से ब्रह्म पृथक् है।
प्रश्न-क्या शंकराचार्य ने इस सूत्र को जीव और ब्रह्म के भेद में लगाया है ?
उत्तर-शंकराचार्य स्पष्ट शब्दों में इस सूत्र के अर्थ में जीव-ब्रह्म का भेद स्वीकार करते हैं, जिसे कोई अभेद में नहीं लगाता।
प्रश्न-वह कौन से मंत्र अथवा श्रुतियाँ हैं; जिनमें जीव और ब्रह्म को अलग-अलग बतलाया गया है।
उत्तर-देखो त्रग्वेद मण्डल 1 सूक्त 164 मंत्र 20 जो जीव और ब्रह्म दोनों चेतन(मुदरिक) होकर एक दूसरे के भीतर रहने से मिले हुए अर्थात् ब्रह्म के भीतर जीव और जीव के अंदर ब्रह्म दोनो मित्र हैं अर्थात् दोनों में मिलाप है। दोनों अपने जैसे अनादि वृक्ष प्रकृति के कार्य संसार में रहते हैं; जीव उसके फलों को भोगता है अथवा ब्रह्म सदैव सा़क्षी देखता है; भेगता नहीं। इस मत्र से तीनों का अनादि पृथक्-पृथक् होना स्पष्ट प्रकट है। प्रकृति जीव और परमात्मा तीनों जन्म से रहिज है। इनमें प्रकृति जगत् को उपादान कारण (इल्लते-माद्दी) है और ब्रह्म निमित्त कारण है, जो इसके फलों को नहीं भोगता। जीव इसके फलों को भोगता है।
प्रश्न-जब वेद उपनिषद् और वेदान्त दर्शन सबही जीव-ब्रह्म का भेद मानते हैं, युक्ति से भी जीव-ब्रह्म भेद सिद्ध होता है और शंकराचार्य ने भी भेद ही बतलाया है, तो मनुष्यों ने अभेद कहाँ से निकाल लिया ?
उत्तर-प्राचीन ऋषियों के अर्थ को न समझने से इन अनभिज्ञों ने ब्रह्म में अविद्या का प्रवेश कर दिया। किसी ने यह न सोचा कि कहीं सूर्य में अन्धकार हो सकता है ? यदि सूर्य में अन्ध्कार हो, तो उसे दूर कौन करे ? यदि ज्ञान-स्वरूप सर्वज्ञ ब्रह्म में अविद्या अर्थात् उलटा ज्ञान आ जावे, तो नष्ट करनेवाला कहाँ से आवेगा ? न तो अविद्या ब्रह्म में आ सकती है न प्रकृति ही में; केवल अल्पज्ञ जीवात्मा ही अविद्या का स्थान है।
प्रश्न-छान्दोग्योपनिषद में लेख है कि आकाश से जगत् उत्पन्न हुआ।