सूत्र :नेतरोऽनुपपत्तेः 1/1/16
सूत्र संख्या :16
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : (न) नहीं (इतर) जीव आनन्दमय (अनुपपतेः) युक्तियों से सिद्ध नहीं किया जा सकता।
व्याख्या :
भावार्थ- जीव को आनन्दस्वरूप्प नहीं; क्योंकि युक्ति से वह सिद्ध नहीं किया जा सकता।
प्रश्न- जीव को आनन्दस्वरूप मानने से क्या दोष होगा ? हम तो मानते हैं कि जीव आनन्दस्वरूप है; अविद्या से अपने को शून्य मानता है।
उत्तर-जीव को आनन्दस्वरूप मानने से सब शास्त्र, वेद और मोक्ष के साधन व्यर्थ हो जावेंगे; क्योंकि उस दशा में जीव बंधन से रहिन होगा; फिर किसके छुड़ाने के लिये शास्त्र बनाये जायेंगे? आनन्दस्वरूप में अविद्या नहीं आ सकती।
प्रश्न-सब वेदान्ती तो माने हैं कि जीव तो आनन्दस्वरूप है, तुम कहते हो कि हो ही नहीं सकता।
उत्तर-हम क्या कहते हैं। वेदान्त के आचार्य व्यासजी कह रहे हैं कि जीव को आनन्दस्वरूप होने किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि यदि आनन्दस्वरूप है, तो वह किसी अवस्था में दुःख अनुभव नहीं कर सकता। जिस प्रकार अग्नि उष्ण है; वह शीतल नहीं हो सकती; जबकि जीव दुःखी न हो, तो मुक्ति की आवश्यकता ही क्या ? क्योंकि मुक्ति उसे कहते हैं; जबकि अत्यंत दुःख की निवृत्ति और आनन्द की प्राप्ति हो। जीव के आनन्दस्वरूप होने से कष्ट उसे हो ही नहीं सकता और आनन्द उसे प्राप्त है। यदि जीव मुक्ति स्वरूप है, ऐसी दशा में तो मुक्ति के लिये जो शास्त्र बनाये गये हैं व्यर्थ हैं।
प्रश्न- वास्तव में जीव आनन्दस्वरूप् है; परन्तु अविद्या का आवरण आ जाने से वह आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता, क्योंकि आनन्द और जीव के बीच परदा आ गया।
उत्तर-आवरण दो द्रव्यों के बीच तीसरे द्रव्य का आया करता है। आनन्द गुण है। गुण और गुणी के बीच परदा नहीं आया करता। इसके लिये कोई उदाहरण संसार में प्राप्त नहीं हो सकता कि जिस स्थान पर गुण और गुणी के बीच परदा आया हो; क्योंकि गुण और गुणों के बीच दूरी नहीं, जिसमें परदा रह सके। यदि गुण और गुणी के मध्य दूरी होती, तो उनका सदैव रहनेवाला संबन्ध न होना; अर्थात् गुण और गुणों से भी समवाय समवेत संबन्ध है।
प्रश्न-क्या जीव को आनन्दस्वरूप् माननेवाले निश्चलदास आदि विद्वान् भूल कर सकते हैं ? यह तम्हारा कथन असत्य है। हम तो मानते हैं; तुम्हीं भूल करते हो।
उत्तर-वेदान्त दर्शन के मूल कर्ता अर्थात् व्यासदेवजी जब मानते हैं कि जीव आनन्दस्वरूप नहीं सिद्ध होता और युक्ति से भी उसका खंडन होता है, तो निश्चलदास आदि के लेख से किस प्रकार जीवात्मा आनन्दस्वरूप बन सकता है ?
प्रश्न-क्या शंकराचार्य आदि ने अपने भाष्य में उसको स्वीकार कर लिया है ?
उत्तर-स्पष्ट शब्दों में स्वीकार कर लिया है-न जीव आनन्दमय शब्देनाभिधीयते अर्थात् जीव आनन्दमय शब्द से नहीं कहा जाता। युक्ति से सिद्ध नहीं हो सकता। जो मनुष्य वेदान्त का अर्थ अभेदवाद में लगाते हैं, उनको इन सूत्रों को विखर से पढ़ना चाहिये।
प्रश्न-क्या जीव और ब्रह्म में भेद है, जो ब्रह्म को आनन्दमय और जीव को आनन्दमय न कहा जावे ?