सूत्र :स्वपक्षदोषाच् च 2/1/28
सूत्र संख्या :28
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (स्वपक्ष) अपने पक्ष में (दोषात) दोष होने से (च) और।
व्याख्या :
अर्थ- यह दोष तो दूसरे जो प्रकृति आदि को कारण माननेवालों के भी अपने मत में भी है; क्योंकि प्रकृति मुफरद (निरवयव) है। जगत् मुरक्कब (सानयत) प्रकृति विभु है और जगत् सांत है। प्रकृति शब्दादि पूरन्य है और जगत् शंकादिवाला उसमें निरवयत प्रधान सम्पूर्ण जगत् रूप हो जाता है, तोप्रकृति शेष न रही। यदि उसे देश में बिकार हुआ, तो दूसरे में नहीं, तो वह सावयव हो गई।
प्रश्न- क्या प्रकृति पर जो शंकायें है, वे ब्रह्मा पर हैं व नहीं। क्योंकि प्रकृति सत, रज, तम के परमाणु दशा अर्थात् कारण अवस्था का नाम है, जिसमें असंख्य परमाणु तो प्रकृति जाति हैं, जिसमें असंख्य परमाणु सम्तिलित हैं और ब्रह्मा एक ही। प्रकृति जाति से अनंत है, उसके अवयव जो परमाणु हैं, वे सांत हैं आदि-
उत्तर- सत, रज, तम तीनों को भी निरवयव ही मानना पड़ेगा, उन पर यह शंका है, एक-एक दूसरे दो को लेकर अपने सजतीय जगत का उपादान कारण हुए, तो दोष बराबर ही हुआ। जिससे तर्कसंगत बात न हुई, एंव प्रकृति भी अनत्य हो गई। अतः सर्व-शक्तिमान् अनेक कारणों के करनेवाले अवयव हैं, वह ब्रह्मावादियों के लिये भी ऐसे ही हैं और परमाणुवादियों पर भी यह शंका होती है कि क्या तुम्हारे परमाणु सर्व देश में मिलते हैं व एक ओर से, यदि सब देशों से मिलेंगे, तो एक परमाणु दूसरे परमाणु में प्रविष्ट हो जायगा, जो असंभव है जो एक देश से मिलेंगे, तो देश भेद होने से उसमें भेद पाया जावेगा। जिससे वह सावयव और अनित्य हो जावेंगे। इस कारण यह दोष दोनों ओर है।