सूत्र :आत्मनि चैवं विचित्राश् च हि 2/1/27
सूत्र संख्या :27
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (आत्मनि) आत्मा के भीतर (च) और (एवम्) इसी प्रकार (विचित्राः) विचित्र गुणवाली (च) और (हि) निश्चय करके।
व्याख्या :
अर्थ- इस विषय पर विवाद करने की आवश्यकता नहीं कि किस प्रकार एक ब्रह्मा के स्वरूप के तप से अनेक प्रकार के आकार हो जाते हैं? जबकि आत्मा में एक स्वप्न की अवस्था में स्वरूप के अंदर से ही अनेक प्रकार की सृष्टि होती है। ऐसा श्रृति ने बतलाया है कि1-स्वप्न की अवस्था में न तो रथ और रथ होते, न रथों से संबंध होता और न मार्ग उत्पन्न करता है, ऐसे ही जगत् में प्राण मदारी आदि भीतर से अनेक प्रकार की सृष्टि उत्पन्न करते हैं। अतः एक ही ब्रह्मा के भीतर अनेक प्रकार को सृष्टि उत्पन्न हो जाती है।