सूत्र :लोकवत् तु लीलाकैवल्यम् 2/1/32
सूत्र संख्या :32
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (लोकवत्) जगत् के राजाओं की भाँति (तु) शंका निवारण के लिये (लीला) खेल ही (कैवल्यम्) केवल है।
व्याख्या :
अर्थ- जिस प्रकार संसार के राजा शिकार आदि खेल करते हैं, इसमें कोई अर्थ नहीं होता ऐसे ही परमात्मा अपने स्वभाव से जगत् को उत्पन्न करता है, उसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं। परमात्मा का स्वभाव न्याय और दया है, इसी स्वभाव से तगत् की उत्पत्ति है। संसार में दो की वस्मुएँ हैं, एक वे, जो सबके लिये उपयोगी हैं, वे ईश्वर की दया से उत्पन्न होती हैं। दूसरी वे, जो सबसे जिये उपयोगी हैं, वे ईश्वर की दया से उत्पन्न होती हैं। दूसरी वे जो किसी के लिये उपयोगी और किसी के लिये हानिकारक हैं, यह न्याय की सृष्टि है न्याय और दया के अतिरिक्त जो कि ईश्वर के स्वाभाविक गुण हैं और कोई प्रयोजन जगत् के रचने का नहीं।
प्रश्न- क्या इतना बड़ा जगत् ईश्वर स्वभाव से रचता है?
उत्तर- यह जगत् हमारी दृष्टि में बहुत बड़ा है; परन्तु ईश्वर के अनन्त शक्तिमान् होने से उसके लिये साधारण कर्म है। यद्यति संसार के राजा शिकार आदि में कुछ स्वार्थ रखते है; परन्तु परमात्मा किंचित् स्वार्थ नहीं रखता; क्योंकि उसमें कोई त्रुटि व न्यूनता नहीं, जो स्वार्थ उत्पन्न करने का कारण हो। न तो ईश्वर पागलों की तरह निष्प्रयोजन सृष्टि रचता है और नाहीं अपने स्वार्थ से रचता है; किन्तु दयालु होने से जीवों पर दया और न्यायकारी होने से न्याय करने के लिये जो उसका स्वभाव है, सृष्टि रचता है।
प्रश्न- क्या ईश्वर जगत् को इव्छा नहीं बनाता, स्वभाव के कारण रचता है?
उत्तर- श्रुति ने स्पष्ट शब्दों में बताया है कि ईश्वर का ज्ञान, बल और क्रिया स्वाभाविक हैं (स्वाभाविकि स्सन बल क्रिया च) ईश्वर अपने लिये कुछ करता ही नहीं।