सूत्र :देवादिवद् अपि लोके 2/1/24
सूत्र संख्या :24
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (देवादिवत्) देवता अर्थात् प्राण सूर्य आदि के समान (अपि) भी (लोके) जगत् में।
व्याख्या :
अर्थ- जिस प्रकार जगत् में देखते हैं कि प्राण, बिना किसी सहायक की सहायता के अपना काम किये जाते हैं। सुषुप्ति में भी प्राणों का काम बन्द नहीं। ऐसे ही सूर्य आदि अपना काम नियम से करते हैं। चुम्बक पत्थर बिना किसी यन्त्र की सहायता के लोहे को खीं लेता है।
प्रश्न- यदि दूध आदि अचेतन पदार्थों में बिना किसी दूसरे की सहायता के दही आदि परिणाम स्वीकार कर लिये जावें, तो प्रथम तो दोष होंगे, जो कि प्रधान के कारण होने में होते हैं, यदि कल्पनायें मान भी लिया जावे तो चेतन ब्रह्मा में जो कि परमाणु से रहित है, कैसे परिणाम होगा?
उत्तर- जैसे चेतन देवता, ऋषि, योगी आदि जिनकी मनःशक्ति बढ़ गयी है, बड़े-बड़े कार्य बिना सहायता के करते हैं। ऐसे ही ब्रह्मा के लिये असंभव है? जैसे मकड़ी बिना दूसरे की सहायता के अपने में से जाला निकालती है और अपने में प्रवेश करती है।
प्रश्न- मकड़ी एक वस्तु नहीं है; किन्तु शरीर और आत्मा दो मिले हुए हैं। जाले का उपादान कारण मकड़ी का शरीर है और निमित्त कारण जीव है।
उत्तर- बलका (बगुली) नामी पक्षी अपने भीतर ही से गर्भ में वीर्य स्थापित करता है। पद्यिनी (कमलनी) एक ताल से दूसरे ताल में बिना किसी साधन के चली जाती है, ऐसे ही चेतन ब्रह्मा भी बिना किसी बाहरी साधन के जगत् उत्पन्न कर देगा।
प्रश्न- यह जो देवता आदि की उपमा दी गयी है, यह दृष्टान्त के लक्षण में नहीं आती; क्योंकि देवतों आदि का शरीर अचेतन है। वे कार्यों के उपदान कारण हो जायँगे; परन्तु ब्रह्मा का अचेतन शरीर विद्यमान नहीं। जो उपादान कहला से और मकड़ी जो छोटे-छोटे कृमि खाती है, उन्हीं का समूह जाला बन जाता है और विद्युत् के शब्द से गर्भवती हो जाती है और पद्यिनी चेतन की क्रिया से अचेतन शरीर के साथ एक ताल से दूसरे में चली जाती है। जिस प्रकार बेल वृक्ष पर चढ़ पर जाती है।
उत्तर- इसमें कोई दोष नहीं, ये सब दृष्टान्त कुम्हार आदि की उपमा को खण्डित करने के लिये दिये गये हैं। जैसे कुम्हार तो कार्य आरम्भ करने के लिये उपकरणों (चाक आदि) की आवश्यकता रखता है; परन्तु प्राण आदि देवता नहीं रखते। इस कारण ब्रह्मा भी बिना सहायता के कार्य कर लेता हैं, यही हमारा प्रयोजन है।