सूत्र :श्रुतेस् तु शब्दमूलत्वात् 2/1/26
सूत्र संख्या :26
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (श्रुतेः) श्रुतियों के (तु) तो शंकानिवृत्ति के लिये (शब्दमूलवात्) वेदमूलक अर्थात् वेद अनुसार से)।
व्याख्या :
अर्थ- प्रथम विधान की हुई शंका निवारण करने के लिये कथन करते हैं। हमारे पक्ष में ककोई दोष नहीं, न तो संपूर्ण ब्रह्मा जगत् रूप होता है; क्योंकि श्रुति बतलाती है। जिस प्रकार ब्रह्मा से जगत् की उत्पत्ति बतलाती है, उसी प्रकार ब्रह्मा का निर्विकार होना भी श्रुति बतलाती है। इस कारण प्रकृति और विकार के भेद का उपदेश करने से स्वरस देवता ने ज्ञान से देखा कि ये तीन देवता जीवात्मा से अणु प्रवेश करके नाम रूप का वर्णन करते हैं। श्रुति का कथन है- ब्रह्मा के तीन कल्पित पाद इस जगत् से परे हैं, केवल एक पाद जगत् में है, दूसरे ‘‘मत से संयुक्त होता है’’ आदि से यह ज्ञात होता है कि वह विकार से शून्य है न वह निरयव होने से श्रुति के विरूद्ध।
प्रश्न- जबकि ब्रह्मा निरवयव है, फिर उसके एक पाद में जगत् है, शेष तीन पाद उससे पृथक हैं, यह कैसे?
उत्तर- ब्रह्मा के सत् चित् आनन्द और स्वातन्त्र ये चार पाद कल्पना किये हैं, जिसमें जगत् सत् मात्र में है।
प्रश्न- इसमें क्या प्रमाण है कि ब्रह्मा के चार पाद हैं और वे उपर्युक्त प्रकार से हैं।
उत्तर- मांडूक्य उपनिषद् ने ब्रह्मा के चार पादों की व्याख्या की है, वह स्पष्ट बतलाती है कि सम्पूण जगत् ब्रह्मा के सत् अर्थात् प्रकृति से बना है; क्योंकि जाग्रत अवस्था स्थूल शरीर में जीव का प्रकृति के साथ बिना किसी आवरण के सम्बन्ध होता है और स्वप्न अवस्था सूक्ष्म शरीर में जीव का प्रकृति के आभास के साथ सम्बन्ध होता है। चैथे स्वाभाविक तुरीय अवस्था में जीव का ब्रह्मा के साथ स्पष्ट सम्बन्ध यह चतुर्थ पाद है। जिसमें जीव को स्वतंत्रता का आनन्द अर्थात् मुक्ति का सुख प्राप्त होता है।
प्रश्न- ब्रह्मा किस प्रमाण से जाना जाता है।?
उत्तर- ब्रह्मा केवल शब्द प्रमाण अर्थात् वेद ही से जाना जाता है; क्योंकि सूक्ष्म होने से वह इन्द्रियों का विषय नहीं, अनुमान से ब्रह्मा की सत्ता का ज्ञान हो सकता है; परन्तु स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता स्वरूप के ज्ञान के लिये केवल शब्द प्रमाण की आवश्यकता है।
प्रश्न- शब्द प्रमाण से भी दो परस्पर विरूद्ध बातों को ज्ञान नहीं करा सकते, सावयव ब्रह्मा परिणामी होता है, नहीं सम्पूर्ण आधे का ज्ञान सावयव में सम्पूण हो सकता है, निरवयव में नहीं हो सकता। यदि परिणाम होगा, तो सम्पूर्ण का सम्पूर्ण होगा। किसी रूप से निरवयव हो और किसी से परिणामी हो, इससे प्रकट होता है कि ब्रह्मा सावयव है।
उत्तर- इसमें कोई दोष नहीं; क्योंकि ब्रह्मा के सत् पाद अर्थात् प्रकृति में परिणाम होने से चित् अनन्द स्वतन्त्रता में परिवत्र्तन न होने से ब्रह्मा सावयव नहीं हो सकता और यह भेद अविद्या से कल्पना किया गया है, जैसे अंधकार से ढके हुए नेत्र में अनेक चन्द्र दृष्टि पड़ते हैं; परन्तु चन्द्र एक ही होता है, ऐसे ही हमारे पक्ष में कोई दोष नहीं।