व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (वैषम्य) सबके साथ समान वत्र्तव न करना (नैघृराय) दया से शून्य होना (न) नहीं (सापेक्षत्वात्) कर्म की अपेक्षा से होने के कारण (तथा) ऐसे ही (हि) निश्चय (दर्शयति) श्रुति दिखाती है।
व्याख्या :
अर्थ- यदि ईश्वर जगत् को उत्पन्न करता है, तो उस पर दो शंकायें होंगी। एक तो वह पक्षपाती है; क्योंकि किसी को उसने धनाडय बनाया, किसी किसी को निर्धन। किसी को स्वस्थ (तन्दुरूस्त) उत्पन्न किया, किसी को रोगी। किसी को स्वतंत्र बनाया, किसी को परतंत्र। तात्पर्य-संसार को उसनक सम दृष्टि से उत्पन्न नहीं किया। अतः उसमें पक्षपात पाया जाता है। दूसरे वह दयालु नहीं; क्योंकि संसार में दुःख अधिक विद्यमान हैं, कर्मों का फल भोगनेवाली नीच योनियाँ अधिक हैं। जब संसार में दुःख अधिक है, तो ईश्वर दयालु नहीं। यदि दयालु होता, तो संसार में दुःख दिखाई न देता। इस शंका का उत्तर देने के लिये यह सूत्र कहा गया है कि वह ईश्वर पक्षपाती नहीं, यदि अपनी इच्छा से किसी को सुखी, किसी को दुखी बनाता, तो वह पक्षपाती होता; परन्तु वह कर्म के कारण से भेद करता है, जिसके कारण उसका न्याय है, न वह निर्दयी अर्थात् दया से रहित है; क्योंकि वह अपने स्वभाव से किसी को दुःख नहीं देता; किंतु जीवों के कर्मों के कारण से उनको दुःख देता है।
प्रश्न- इसमें क्या प्रमाण है कि ईश्वर कर्मों के कारण से सृष्टि रचता है?
उत्तर- योग दर्शन में महर्षि पतंजलि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि यह जगत् तीन प्रकार का रचा गया। कर्म योनि ईश्वर की दया से होती है, भोग योनि-अर्थात् पशु, और जलचर आदि पूर्वकर्मों का फल भोगने के लिये होती है और उभय योनि अर्थात् मनुष्य, पूर्वकर्मों के फल भोगने आगामी के लिये कर्म करने के लिये होती है। अतः कर्म योनि जो दया से होती है, उसमें न तो कोई दुःखी है, जो ईश्वर निर्दयी कहलावे और और न उसका भेद होता है, जो ईश्वर में पक्षपात का अभियोग लगा सकें। जिन योनियों में भेद है, उनमें कर्म के कारण हैं। अतः ईश्वर से सृष्टि मानने में कोई दोष नहीं। इन्ही अर्थों में ईश्वर को जगत् का कारण अर्थात् प्रकृति स्वीकार किया है। यदि इच्छा से करता हो, निमित्त कारण कहलाता; परन्तु वह स्वभाव से रचता है, अतः वह प्रकृति भी कहलाता है।
प्रश्न- यदि ईश्वर स्वभाव से जगत् कर्ता है तो कर्मों को फल जो ज्ञान के अनुसार दिया जाता है, पापी को दंड और धर्मात्मा को पुरस्कार नहीं मिल सकते?
उत्तर- ज्ञानी ईश्वर के नियम ही ऐसे हैं, जो स्वभाव से ही कर्मों का फल देता है- जैसे सूर्य के सामने शीत प्रकृतिवाले गर्म स्वभाववाले मनुष्य जायें, तो शीत प्रकृतिवालों को सुख और गर्म प्रकृतिवालों को दुख उनके स्वभाव के अनुसार ही हो जायेगा। जिसको अधिक शीत है, उसको अधिक सुख, जिसको न्यून शीत है, उसको थोड़ा सुख, जिसको अधिक गर्मी है, उसको अधिक दुख, जिसको थोड़ी गर्मी है, उसे थोड़ा दुःख मिलेगा। यद्यपि सूर्य उनको इच्छा से सुख-दुःख नहीं देता; परन्तु दृष्टान्त के लिये ईश्वर उसका स्वभाव ही बनाया है। यदि उसी पृथ्वी में गन्न (ईख) का बीज बोया जाये, जो मीठे परमाणु, यदि मिर्च का बीच बोया जाये, तो वह उपने अनुसार तीक्ष्ण परमाणुओं को खींच लेगा। बीज इच्छा से परमाणु नहीं खींचता; किंतु उसके भीतर परमात्मा ने स्वभाविक शक्ति ही ऐसा रक्खी है। अतः जबकि प्रत्येक वस्तु के भीतर यह नियम सिद्ध होता है कि-स्वभाव के अनुसार फल होता है, जौ को बोकर लोग जौ का दाना पाते हैं, धान को बोकर धान का दाना पाते हैं। जबकि ईश्वर ने संसार में कर्म-फल के लिये उदाहरण रख दिये हैं कि मनुष्य देवता और पशुओं में जो भेद है, वह कर्मों के कारण है। सिने अपने अन्तःकरण के क्षेत्र में जैसे संस्कारो का बीज बोया है, उसको वैसे ही भोग मिलता है। ईश्वर, देवमनुष्यादि की उत्पत्ति में साधारण कारण है-जैसे खेती के उत्पन्न होने में सूर्य और जल और ईश्वर इस दोष से रहित है।
प्रश्न- क्या प्रमाण है कि ईश्वर जगत् को कर्मो के अनुसार रचता है?
उत्तर- कौशीतकी ब्राह्यण में लिखा है, जो इस जन्म में शुभ कर्म करता है, वह मनुष्य लोक से उन्नति पाता है और जो पाप करता है, वह इस जन्म से नीच योनियों को पाता है। और वृहदारण्यक उपनिषद् में लिखा है ‘‘शुभ कर्मों से उत्तम जन्म मिलता है और पाप कर्मों से बुरा जन्म मिलता है और गीता में भी लिखा है’’ जो मुझे जिस प्रकार प्राप्त करते हैं, मैं उनको वैसे ही भोग देता हूँ।