DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :इतरव्यपदेशाद् धिताकरणादिदोषप्रसक्तिः 2/1/20
सूत्र संख्या :20

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (इतर व्ययदेशात्) शारीर को ब्रह्माबतलाने से वा ‘‘वह तू है’’ इस प्रकार भिन्नता का विधान करने से (हितकारणादि) हित करने आदि (दोष प्रसक्तिः) दोष की प्राप्ति होगी।

व्याख्या :
अर्थ- फिर चेतन जगत् का कारण है, इसमें दोष दिखलाते हैं कि यदि जगत् का प्रवाह चेतन ब्रह्मा ही स्वीकार किया जाय, तो उसमें प्रथम वर्ण किये हुए दोष आयेंगे। क्योंकि शरी को ब्रह्मा बतलाया गया है और शरीर ब्रह्मा के लिये हितकारी अर्थात् उपयोगी है नहीं और जगत् में कोई मूर्ख से मूर्ख भी जान-बूझकर अपने लिये हानि नही चाहता और कोई स्वतंत्र मनुष्य अपने लिये कारागार बनाकर उसमें प्रविष्ट होता हुआ नहीं पाया गया। जब कोई ज्ञानवान् मनुष्य ऐसा कार्य नहीं करता, तो सर्वज्ञ सर्व चेतन ब्रह्मा जो शुद्ध है, किस प्रकार अपनी इच्छा से शरीर रूप होगा; क्योंकि शरीर से जो कुछ निकलता है, वह सब अशुद्ध है। नेत्रों से कीचड़ निकलती है वह मैली, कान से मैल, नासिका से सींढ़ और मुख से थूक निकलता है। तात्पर्य यह है कि शरीर से जो कुछ निकलता है वह सब अपवित्र है। और शरीर में हड्डी, माँस, चरबी, रक्त आदि है, सब अशुद्ध ब्रह्मा अपवित्र शरीर रूप होना कब स्वीकार करेगा? और एक ही शुद्ध ब्रह्मा में अपवित्रता आदि मिलावट कैसे संभव है और न ब्रह्मा को पराधीन स्वीकार करना चाहिए। जिससे कि उपादान कारण हो सके। और ब्रह्मा को अपवित्र करने के लिये किसी अपवित्र वस्तु को होने की आवश्यकता है। क्योंकि कोई पवित्र पदार्थ बिना मिलावट के अपवित्र नहीं हो सकता। क्योंकि कोई ऐसा उदाहरण नहीं; यहद ब्रह्मा के अतिरिक्त ब्रह्मा को अपवित्र करनेवाली कोई दूसरी वस्तु मानोगे, तो वह ब्रह्मा से सूक्ष्म होनी चाहिए। क्योंकि सूक्ष्म के गुण में प्रविष्ट हो सकते हैं। स्थूल के गूण सूक्षम में नहीं। अग्नि के प्रवेश से जल गरम हो सकता है; परन्तु अग्नि में जल प्रविष्ट होकर अग्नि को शीतल नहीं कर सकता। यदि उपाधि से ब्रह्मा में अशुद्धि स्वीकार की जाय, तो वह उपाधि ब्रह्मा से पृथक् और बड़ी होनी चाहिए; परन्तु ब्रह्मा से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है। इसलिये ब्रह्मा को जगत् का उपादान कारण मानने में इतने दोष हैं कि जिनका उत्तर हो नहीं सकता। निदान ब्रह्मा को जगत् का निमित्त कारण ही मानना चाहिए। प्रश्न- ब्रह्मा विकारवाला नहीं, जो उपाधि के निमित्त से अपवित्र हो जाय, हम तो ब्रह्मा प्रतिबिंब जगत् को मानते हैं। उत्तर- ब्रह्मा का प्रतिबिंब जगत् हो नहीं सकता; क्योंकि प्रतिबिंब वहाँ होता है, जहाँ असल न हो। इसलिये ऐसा कोई स्थान बतलाना चाहिए, जहाँ ब्रह्मा न हो। ताकि उसका प्रतिबिंब पड़ सके। देसरे प्रतिबिंब अपनी आकृति के अनुसार होता है, ब्रह्मा की कोई आकृति नहीं, जगत् की आकृति है। यदि ब्रह्मा का प्रतिबिंब होता, तो ब्रह्मा समान निराकार होता। अतः ‘‘प्रतिबिंबवाद उचित नहीं।’’ प्रश्न- हम ऐसा मानते हैं कि जिस प्रकार मदारी अपने झोले से सब खेल निकालता है और अपनी इच्छा से उन्हें बंद करदेता है, ऐसे ही ब्रह्मा जगत् को उत्पन्न करता और नष्ट करता है। उत्तर- मदारी के पास अपने स्वरूप से भिन्न सामाग्री होती है, जिससे वह खल निकलता है; परन्तु मदारी का स्वरूप निराकार हो और उपादान कारण न हो, तो जो दोष बतलाये गये हैं, उसमें सब आयेंगे।

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