सूत्र :असद्व्यपदेशान् नेति चेन् न धर्मान्तरेण वाक्यशेषाद्2/1/16
सूत्र संख्या :16
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (असद् व्ययदेशात्) ज्ञुति ने यह भी उपदेश किया है कि इस सृष्टि पूर्व ‘‘असत्’’ अर्थात् अभाव था (न) नहीं (इति) यह (चेत) यदि ऐसा माना जावे (न) नहीं (धर्मान्तरेण) देसरे धर्म के कारण (वाक्य शेषात्) दूसरी जगह से वाक्य के शेष होने से।
व्याख्या :
अर्थ- यह जो कहा गया है कि सृष्टि से पूर्व श्रुति ने ‘‘सत्’’ ही बतलाया, उस पर विपक्षी कहता है कि श्रुति ने तो सृष्टि से पूर्व ‘‘असत्’’ भी बतलाया है, जैसा कि छान्दोग्य उपनिषद् में विधान है कि इस सृष्टि से पूर्व ‘‘असत्’’ ही था और यह कार्य प्रथम सब ‘‘अभावरूप’’ था इस कारण उत्पत्ति से पूर्व कार्य नहीं था। यदि यह स्वीकार किया जय, तो हम कहते हैं कि यह श्रुति का तात्पर्य नहीं। श्रुति का तात्पर्य सृष्टि से पूर्व ‘‘अत्यंताभाव’’ बतलाने का नहीं; किन्तु कार्य के न होने का उपदेश है।
प्रश्न- क्या प्रत्यक्ष नाम रूपवाले से अप्रत्यक्ष नाम रूप भिन्न धर्म हैं? और उस पृथक् धर्म के कारण यह उपदेश किया है कि सृष्टि से पूर्व असत् ही था, उत्पत्ति से प्रथम सत् ही कार्य का कारण रूप बिना भेद होना यह किस प्रकार हो सकता है?
उत्तर- वाक्य शेष के अर्थ (अर्थात् शेत् विषय) के निकलता और यह नियम है कि वाक्य आरम्भ के प्रकरण से जो शंका प्रकट हो, उसे उन्त तक विशय से व्यवस्था करके निर्ण करना चाहिए। उस स्थान पर ‘‘असत्’’ ही इस जगत् से पूर्व था, इसका अर्थ यह लेना चाहिए कि अस्तित्व से प्रथम उद्भूत रूप में (प्रत्यक्ष रूप से) नहीं था, क्योंकि यदि असत् का अत्यन्ता भाव लिया जाय, तो उसके लिये था (आसीत्) शब्द नहीं आ सकता; क्योंकि अतयन्ताभाव के लिये भूतकाल का प्रयोग हो नहीं सकता। अतः प्रथम असत् था। उसने अपने आपका प्रकट किया। इन श्रुतियों से यह परिणाम निकलता है कि श्रुति का प्रयोजन अत्यन्ता भाव से नहीं। अतः दूसरे धर्म के कारण ही यह असद्वाद का उपदेश किया है कि सृष्टि से पूर्व कार्य का नाम रूप असत् अर्थात् (अप्रत्यक्ष) ‘‘अनुद भूत था,यह जगत् वास्तव में ही’’ प्रत्यक्ष न होने योग्य होने से (अलक्ष्य होने से) अभाव की सम्पन्न था।