सूत्र :सत्वाच् चापरस्य 2/1/15
सूत्र संख्या :15
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (सत्त्वात्) होने से ज्ञान होता है (च) और (अवरस्य) गुप्त कार्य का।
व्याख्या :
अर्थ- कार्य और कारण में जो एकता स्वीकार की जाती है, वह इस कारण से है कि कार्य कारण में उत्पत्ति से प्रथम होता है। तिलों में से तेल निकलता है; परन्तु बालू में से तेल कदापि नहीं निकलता। इसलिये श्रुति का कथन है कि ‘‘प्रिये सौम्य अर्थात् प्रिय पुत्र इस जगत् से पूर्व सत् ही था’’ इससे एक आत्मा ही थी, इस शब्द के कहने से स्पष्ट प्रकट है कि कारण और कार्य दोनों एक ही पदर्थ हैं, केवल अवस्था में भेद होता है। क्योंकि जो जिसमें विद्यमान होता है, वही उसमें से निकलता है। जो जिसमें नहीं है, वह उसमें नहीं निकल सकता-जैसे वालू से तेल। अतः उत्पत्ति से पूर्व जब कारण और कार्य एक हैं, तो उत्पत्ति के पश्चात् भी एक ही स्वीकार करने चाहिए। जैसे ब्रह्मा त्रिकाल में रहनेवाला है, तैसे ही जगत् भी।
प्रश्न- क्या ब्रह्मा ‘‘सत्’’ श्रुति तो तीन ‘‘सत्’’ बतलाती है और कोई श्रुति एक ही ‘‘सत्’’ कथन करती है, दोनों में से किस श्रुति को माना जाय?
उत्तर- ‘‘आत्मा शब्द में तीनों ही आ जाते हैं। इसलिये श्रुति में विरोध नहीं, आत्मा का अर्थ है व्यापक। जिससे सिद्ध है कि कोई कारण पदार्थ भी है कि जिसमें वह व्यापक है। अतः प्रकृति अर्थात् अर्थात् व्याप्य की सिद्धि तो ‘‘आत्मन्’’ शब्द से ही हो गई और आत्मा शब्द के दो अर्थ हैं, एक ‘‘जीवात्मा’’ दूसरा ‘‘परमात्मा’’ इस कारण ‘‘आत्मा’’ शब्द से तीन पदार्थ की सिद्धि हो जाती है।