DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :युक्तेः शब्दान्तराच् च2/1/17
सूत्र संख्या :17

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (युक्तेः) युक्ति से (शब्दान्तरेभ्यः) और दूसरी श्रुतियों से भी।

व्याख्या :
अर्थ- उत्पत्ति से प्रथम कार्य सत् था और वह कारण से भिन्न नहीं था, यह बात युक्ति अन्य श्रुतियों से भी सिद्ध होती है। युक्ति यह है कि दही घड़ा आदि पदार्थों की स्थिति दूध मिट्टी आदि वस्तुओं के कारण है, अर्थात् दही और घड़े का कारण मिट्टी एंव सोन के घड़ों के कड़ों का कारण सोना है। यह जगत् प्रत्यक्ष देखा जाता है कि है कि कोई मनुष्य दही के लिये मिट्टी और घड़ा बनाने के लिये दूध नहीं लाता। यह वाक्य ‘‘असत् कार्यवाद’’हो नहीं सकता, उत्पत्ति से प्रथम कोई विशेषता न होने से सब कार्यों के सब कारणों में ‘‘असत् होने से किस कारण दूध से ही दही उत्पन्न होगा, मिट्टी से नहीं।’’ और घड़ा मिट्टी से उत्पन्न होगा न कि दूध से। जब कोई विशेषता के लिये कोई विशेषता होगी। यदि कोई विशेषता स्वीका की जाय, तो स्पष्टतया ‘‘सत् कार्यवाद’’ सिद्ध होगा। कारण में कार्य बनने की शक्ति का नियमित होना ‘‘सत् कार्यवाद’’ का प्रमाण है, अन्य की अन्य विशेषता के न होने से यह अन्य भी नहीं होगा। क्योंकि एक को दूसरे से पृथक् करने वाली विशेषता ही होती है। इसलिये कारण शक्ति रूप है औी शक्ति कार्य रूप है। दूसरे द्रव्य गुण आदि के कार्य और कारण होने की दशा में घोड़ा, भैंस की भाँति भेद बुद्धि के होने से (तादात्म्या संबंध) अर्थात् द्रव्य गुण है और गुण द्रव्य होगा। प्रश्न- यदि द्रव्य गुण का समवाय संबंध स्वीकार किया किया जाय, तो क्या दोष होगा? उत्तर- उस दशा में एक के सहारे दूसरे की सत्ता होने से दूसरे की पूर्व की सत्ता होने से अनवस्था दोष होगा। यदि उनके भेद का ज्ञान न हो, तो उसकी पहचान न हो सकेगी। प्रश्न- यदि समवाय को स्वयं ही संबंध रूप होने से दूसरे संबंध के न होने से भी स्वीकार किया जाय, तो क्या दोष होगा। उत्तर- तो संयोग भी स्वयं ही संबंध रूप होने से समवाय की आवशयकता न रखता हुआ यह संबंध हो जायेगा। अतः द्रव्य गुण को तादात्म्य से स्वीकार किया जाय, तो समवाय संबंध की कल्पना व्यर्थ है। किस प्रकार- यह संयुक्त द्रव्य जो अवयवों से मिलकर बना है, कारण अथा।त् उपादान कारण में जो संयुक्त है और अवयवों से मिला हुआउसके अंदर रहता है, क्या अनेक अवयवों में पूणत्व रूप से रहता है वा पृथक्-पृथक् प्रत्येक अवयव में। यदि वह पूर्ण रूप से सब अवयवों में रहता है, तो उसे पूर्ण का ज्ञान नहीं होगा; क्योंकि किसी वस्तु के अनेक अवयवों के साथ संबंध हो नहीं सकता। प्रश्न- क्या कारण है कि किसी वस्तु के संपूर्ण अवयवों से संबंध होना असंभव है? उत्तर- एक वस्तु में जो अधिक अवयव हैं, उनमें जो मध्य के अवयव हैं, उनसे संबंध नहीं हो सकता; क्योंकि किनारों के अवयव उस संबंध में बाधक हैं। अतः कुछ अवयवों में संबंध होगा, कुछ से नहीं। प्रश्न- यदि यह स्वीकार किया जाय कि पूर्ण प्रत्येक अवयव में अवयवी रूप से रहता है और सब अवयवों में पूर्णता रूप से? उत्तर- इस दशा में भी आरम्भ के भागों के अतिरिक्त पूर्ण के भाग कल्पना करने पड़ेंगे। जिन आदि के भागों में भागशः पूर्ण रहता है, ऊपरी कोश के भागों के अतिरिक्त निश्चय दूसरे भागों को इनमें व्यापक होना आवश्यक है। इस प्रकार अनवस्था दोष अवश्य आयेगा। प्रश्न- यदि यह स्वीकार करें कि पूर्ण ही एक अवयव में रहता है, तो क्या दोष होगा? उत्तर- उस अवस्थ में एक स्थान से सबमें क्रिया होगी; परंतु ऐसा होना असंभव है। एक ही देवदत्त उसी समय आगरा में भी हो और उसी समय पटना में भी उपस्थित हो, यदि एक ही समय में अनेक स्थानों में उपस्थित हो, तो वह एक के अतिरिक्त अनेक होगा। देवदत्त की भाँति आगरा व पटना के निवासी भिन्न-भिन्न रहेंगे। प्रश्न- जिस प्रकार प्रत्येक गऊ में गऊपन पाया जाता है यदि इसी प्रकार प्रत्येक अवयव में अवयवित्व (पूणता) की जाय, तो क्या दोष है? उत्तर- ऐसा नहीं हो सकता; क्योंकि देखा न जाने से-जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति में जाति रहती है, इसी प्रकार प्रत्येक अवयव में पूर्णता की विद्यमानता स्वीकार की जाय, तो प्रत्येक व्यक्ति में जाति तो होती है, ऐसे ही प्रत्येक अवयव में पूणता होनी चाहिए। इस प्रकार कोई पदार्थ न रहेगा। उस समय सीगों से स्तनों का कार्य ले सकेंगे; क्योंकि प्रत्येक खंड में पूर्णता विद्यमान है; परन्तु दिखाई नहीं देती। प्रश्न- यदि क्रिया कर्ता के स्वीकार की जाय, तो देाष है? उत्तर- यह प्रश्न अपने को स्वये काटता है। यदि घड़े की उत्पत्ति तो बताई जाय; परन्तु कहा जाय कि उत्पन्न होगा, क्या घड़ा अपने आप बना है? या किसी ने बनाया है? ऐसे ही उसके दो भागों की उत्पत्ति पर भी प्रश्न होगा। अन्त को स्वीकार करना पड़ेगा कि किसी ने बनाया है। प्रश्न- यदि कारण के होने से घड़ा उत्पन्न हुआ है, तो कहना पड़ेगा कुम्हार आदि कारण भी उत्पन्न हुए हैं? उत्तर- जगत् में घड़ा उत्पन्न हुआ है, इससे कुम्हार की उत्पत्ति का ज्ञान नहीं होता, उत्पत्ति के प्रकट होने से यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अपने कारण की सत्ता से संबंध ही उत्पत्ति है, अर्थात् कार्य का आकृति रूप होना। प्रश्न- यदि उत्पत्ति से पूर्व कार्य विद्यमान नहीं, तो किस प्रकार कारण से संबंध कर सकता है? क्योंकि दो के होने में ही संयोंग हो सकता है अन्यथा नहीं। न तो अभावों में संयोग हो सकता है और नाहीं भाव और अभाव में। उत्पत्ति से पूर्व अभाव के रूप रहित होने के कारण उसकी सीमा नहीं हो सकती। यदि घड़ा घर आदि जो संसार में विद्यमान हैं, उनकी ही सीमा होती है, अभाव की नहीं; बाँझ का पुत्र कदापि नहीं हो सकता। उत्तर- यदि बाँझ के पुत्र का राजा होना सिद्ध हो जाय, तो अभाव से भाव भी हो जाय; क्योंकि अभाव से भाव होने का कोई उदाहरण नहीं मिलता। अतः कारण की सत्ता से ही कार्य की सत्ता का कोई उदाहरण नहीं मिलता। प्रश्न- यदि कार्य क्रिया से प्रथम कारण में विद्यमान माना जाय, तो कर्ता का परिश्रम व्यर्थ होगा; क्योंकि उसके उद्योग से पूर्व कार्य विद्यमान है ही। उत्तर- कर्ता का उद्योग व्यर्थ नहीं। क्योंकि जो कार्य पहले गुप्त था, वह कर्ता के पुरूषाथ्ज्र्ञ से प्रकट हो गया। अतः कर्ता के उद्योग से उसकी दशा बदल गई अतः नहीं। प्रश्न- एक और कारण और कार्य को एक बतलाया जाता है, दूसरी ओर उनकी अवस्था बदली हुई बतलाई जाती है, तो यह दोनों बातें कैसे हो सकती है? उत्तर- यदि देवदत्त को एक तो खुले हाथ पाँव, दूसरे सिकुड़ हुए हाथ पाँव देखने पर भी प्रत्यभिज्ञा (पहिचान) होती है, और प्रगट करती है कि वही देवदत्त है, जो दो अवस्थाओं में दीखने पर भी एक ही सिद्ध होता है। अतः कारण कार्य एक ही है। यदि दशा बदलने से वस्तु अन्य हो जाती, तो कोई जवान बुड्ढ़ा होने पर भी वही न कहाता। इस दशा में पिता-पुत्र का व्यवहार न रहता। इसी ख्णिकवादी का मत भी गिर जाता है कि कि जिसके मत में उत्पत्ति से पूर्व कार्य नहीं। उसमें कार्य के व्यवहार का कोई विषय नहीं रहता। क्योंकि अभाव किसी वस्तु का विषय नहीं हो सकता। जैसे मनुष्य तलवार आदि से आकाश का खंडन करने लगे। प्रश्न- क्योंकि करनेवाले का उद्योग समवायी कारण पर प्रभाव करता है, इसमें क्या दोष है? उत्तर- कार्य अन्य वस्तु पर किया जावे और उत्पन्न अन्य वस्तु हो जावे। अतः उपर्युक्त युक्तियों से कारण और कार्य का एक होना पाया जाता है, इसमें और श्रुतियाँ भी प्रमाण हैं, जिनसे ‘‘असत् कार्यवाद’’ का खंडन और ‘‘सत् कार्यवाद’’ का मंडन होता है। इसको और भी पुष्ट करते हैं-

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