A PHP Error was encountered

Severity: Warning

Message: fopen(/home2/aryamantavya/public_html/darshan/system//cache/ci_sessiond23dfb2ce4e8a1a15c9ab579299e854e97d863dd): failed to open stream: Disk quota exceeded

Filename: drivers/Session_files_driver.php

Line Number: 172

Backtrace:

File: /home2/aryamantavya/public_html/darshan/application/controllers/Darshancnt.php
Line: 12
Function: library

File: /home2/aryamantavya/public_html/darshan/index.php
Line: 233
Function: require_once

A PHP Error was encountered

Severity: Warning

Message: session_start(): Failed to read session data: user (path: /home2/aryamantavya/public_html/darshan/system//cache)

Filename: Session/Session.php

Line Number: 143

Backtrace:

File: /home2/aryamantavya/public_html/darshan/application/controllers/Darshancnt.php
Line: 12
Function: library

File: /home2/aryamantavya/public_html/darshan/index.php
Line: 233
Function: require_once

वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :गतिसामान्यात् 1/1/10
सूत्र संख्या :10

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (गति) ज्ञान और गमन (सामान्यात्) एक सी होने से ।

व्याख्या :
भावार्थ- क्योंकि वेदान्त के सब ग्रंथों में निमित्त कारण की चर्चा है; इसलिये सर्वदा सब जगह आत्मा ही को कारण बताया। यदि वेदान्त शास्त्र अन्य कारणों के निरूपण करता, तो प्राकृत्यादि को कारण स्वीकार करता। जिस प्रकार उपनिषदों में लिखा है कि आत्मा ही से आकाश उत्पन्न हुआ, आकाश के वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी आदि, तो यहाँ यह प्रयोजन नहीं कि आकाश और वायु आदि की उपादान कारण ब्रह्म है; किन्तु निमित्त कारण ब्रह्म है। प्रश्न- सब विद्वान तो सब प्रकार का कारण ब्रह्म ही को मानते हैं; तुम केवल निमित्त कारण मानते हो। इसका क्या प्रमाण है कि तुम्हारा कथन उचित है ? उत्तर- प्रत्येक आचार्य को उपादान कारण ब्रह्म के होने पर जो शंकायें उत्पन्न होती हैं, उनके उत्तर के लिये माया का आसरा लेना पड़ता है और माया प्रकृति का नाम है। इस कारण उपादान कारण माया और निमित्त कारण ब्रह्म है। यदि वेदान्त के आचार्य उपादान कारण (माया) के लिये ग्रहण न करके उद्यत होते; परन्तु वास्तव में अधिकवाद बनाने पर भी वेदान्तियों की शंकाओं का उत्तर देने के लिये केवल ब्रह्म के अतिरिक्त छै पदार्थ मानने पड़े, जिससे स्पष्ट प्रगट हो गया कि छै शास्त्र मिलाकर ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है और प्रत्येक शास्त्र एक-एक कारण (इल्लत) का वर्णन करता है। प्रश्न- आकाश को दूसरे शास्त्रों ने नित्य माना है। वेदान्त ने उसकी उप्पत्ति किस प्रकार बतला दी ? उत्तर- आकाश के दो लक्ष्ण किये हैं- एक तो अवकाश स्थान (खाली जगह) दूसरा जिसमें निर्गमन और प्रवेश हो सकने का कार्य हो सके, जब तक कि प्रकृति में स्थूलपन नहीं होता, तो निकलना अथवा प्रवेश होना किस प्रकार सम्भव है अथवा जब तक आकाश मे गैस की भाँति भरा हुआ माद्दा ठोस दशा में न जाने लगे; तब तक आकाश कहाँ हो सकता। इस कारण यह दोनों वाक्या प्रकृति में ठोसपन होने से प्रकट हो सकते हैं; अतः जब तक प्रकृति में अतिक्रम न हो; तब तक आकाश कहता ही नहीं सकता और प्रकृति में गति बिना आत्मा के हो नहीं सकती। इसलिए सब की उत्पत्ति का कारण आत्मा है; जिसकी क्रिया से संयोग और वियोग होकर सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय आदि होते हैं। इस कारण जगत् का आदि मूल ब्रह्म को मानना उचित है। इस पर और युक्ति देते हैं ।