सूत्र :तदनन्यत्वम् आरम्भणशब्दादिभ्यः 2/1/13
सूत्र संख्या :13
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (तत्) वह कार्य जगत् (अनन्यत्वम्) ब्रह्मा से भिन्न नहीं ब्रह्मा स्वरूप ही है (आरम्भणशब्दादिभ्यः) उपनिषद् में ‘‘वाचारम्भण विकारी नामधेयम्’’ (छान्दोग्य 6।1।4) इस प्रमाण से।
व्याख्या :
अर्थ- प्रकट होता है कि भोक्ता और भोगने योग्य पदार्थ का जो भेद है, वह केवल व्यवहारिक है, सत्य नहीं; किन्तु कार्य जगत् ब्रह्मा से भिन्न नहीं; क्योंकि उपनिषद् में भेद को इस प्रकार प्रकट किया है-‘‘हे सौम्य! जैसे एक मिट्टी के ज्ञान से सब मिट्टी की बनी हुई वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है! जैसे मिट्टी के विकार अर्थात् बदली हुई अवस्था में बनी हुई वस्तुएँ हैं, यह केवल कथन मात्र हैं वास्तव में पृथ्वी ही बनी है।
प्रश्न- क्या घटादि में जो आकृति है, वह पृथ्वी की है? यदि कहो वह कर्ता में ज्ञान से आई है, तो घट के बनाने वाला जिसने मिट्टी से घट बनाया, वह सत् क्यों नहीं?
उत्तर- उपादान के गुण क्योंकि कार्य में रहा करते हैं और कार्य को देखने से उपादान कारण का ही प्रत्यक्ष होता है, निमित्त कारण का प्रत्यक्ष नहीं होता।
प्रश्न- जिन श्रुतियों में ब्रह्मा को एक बताया है, उनका अर्थ है कि जैसे वृक्ष को एक कहा जाता है, तो उसका ग्रहण उसकी सब शाखाओं को लेकर होता है। यदि शाखओं की पृथक्-पृथक् गणना की जाय, तो द्वैत होता है, जब जड़ की ओर देखा जाय, एक बोध होता है, ऐसे ही विकारों को लेकर तो बहुत और कारण को लेकर एक ही ब्रह्मा है। इस कारण ब्रह्मा सब शक्तियों के समूह को ब्रह्मा कहा जाता है-जैसे एक पृथ्वी घट अनेक-
उत्तर- जितने दृष्टान्त दिये हैं, सब उपादान कारण के हैं; परन्तु उपादान के वल कदापि कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता और जो मनुष्य इस दृष्टान्त की उपस्थिति से रज्जु में सर्प के भ्रम के समान ब्रह्मा में जगत् को विवृत कहते हैं, उनसे अधिक भूल में कोई नहीं हो सकता; क्योंकि दृष्टान्त कार्य कारण भाव के है। क्योंकि उपादान कारण के गुण कार्य में आते हैं और नाश होकर वे कारण में मिल भी जाते हैं; परन्तु भ्रान्ति में यह दृष्टान्त घट नहीं सकता; क्योंकि कार्य-क्रम बाध्य होता है, अर्थात् कार्य का नाश कर्म तोड़ने से होता है और भ्रान्ति-बाध्य होती है, अर्थात् ज्ञान से नाश होती है। रज्जु में जो सर्प का भ्रम है, वह तो प्रकाश से दूर हो जायगा। क्या पृथ्वी से जो घट बना है, वह भी प्रकाश से दूर हो जायेगा, कदापि नहीं।
ब्रह्मा जगत् का उपादान कारण हो नहीं सकता; क्योंकि उपादान कारण में या तो संयोग गुण से सृष्टि होती है या वियोग गुण से। जहाँ कारण बहुत व न्यून परिमाणवाला हो, तो संयोग गुण से सृष्टि होती ह-जैसे ईंटों में संयोग होने से घर बनता है और वृक्ष को चीरने (वियोग करने) से तख्ते बनते हैंद्ध परन्तु ब्रह्मा अनेक नहीं कि जिनके संयोग से सृष्टि बने। ब्रह्मा से शून्य कोई स्थान नहीं, जिससे उसमें वियोग होकर जगत् बन सके।
प्रश्न- यदि ब्रह्मा जगत् का उपादान कारण न हो, तो यह श्रुति किस प्रकार सत्य हो सकती है कि एक ब्रह्मा का ज्ञान होने से सबका ज्ञान हो जाता है? (छा. ।6।1।4)
उत्तर- क्योंकि ब्रह्मा सूक्ष्म और सर्वत्र व्यापक है। अतः उस सूक्ष्म के ज्ञान से प्रथम ही बाहरवाले स्थूल पदार्थों का ज्ञान हो जायगा।
प्रश्न- यदि श्रुति जगत् का ब्रह्मा विवृत न मानती, तो ऐसा वचन क्यों कहती कि ‘‘मैं ब्रह्मा हूँ।’’
उत्तर- इस श्रुति बताया कि इस सृष्टि से पूर्व ब्रह्मा ने जाना कि मैं ब्रह्मा हूँ अपने आपको ब्रह्मा न जानता और क्या जानता। इस श्रुति ने यह कहाँ बताया है कि जीव ब्रह्मा है?
प्रश्न-इस श्रुति में उद्दालक मुनि ने श्वेतकेतु को बतालाया कि ऐ श्वेतकेतु! वह आत्मा तू ही है।
उत्तर- इस श्रुति का नौ बार उद्दालक मुनि ने श्वेतकेतु को छान्दोग्य उपनिषद् में उपदेश किया है। सबके अन्त में यह श्रुति है। जिसका अर्थ विचारने से स्पष्ट यह ज्ञात हुआ कि ऐ श्वेतकेतु! जीवात्मा तू ही है। जीव ब्रह्मा की एकता इससे प्रकट नहीं की गई।
प्रश्न- क्या प्रमाण कि इस श्रुति में आत्मा से प्रयोजन जीवात्मा का है, जिससे प्रकट हो कि वह जीवात्मा तू है?
उत्तर- इस विषय में एक जगह1 ऋषि ने यह भी उपदेश किया है कि जब शरीर के एक अंग को जीव छोड़ देता है, तो वह सूख जाता है। जीव के पृथक् हो जाने ये यह शरीर मर जाता है, जीव नही मरता। इसके आगे बतलाया है कि जीव क्या वस्तु है? वह जो एक सूक्ष्म जिसका यह शरीर व्याप्त है, वह नित्य रहनेवाला है, वह आत्मा ऐ श्वेतकेतु तू है।