DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :भोक्त्रापत्तेर् अविभागश् चेत् स्याल् लोकवत् 2/1/12
सूत्र संख्या :12

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (भोक्त्रापत्तेः) भोक्त्र (भोक्त्रा) अर्थात् भोगनेवाला और भोग के योग्य पदाथ्ज्र्ञ यह दोनों सिद्ध हैं (अविभागः) विभाग अर्थात् भेद के न रहने से (चेत्) यदि ऐसा (यात्) हो (लाकवत्) लोक अर्थात् संसार की भाँति।

व्याख्या :
अर्थ- फिर ब्रह्मा जगत् का उपादान कारण है, इस पर तर्क अर्थात् युक्ति के द्वारा शंका करते हैं यदि श्रुति का प्रमाण अपने में होता हो, तो ठीक है; पंरन्तु दूसरे प्रमाण से विषय का खण्डन होता हो, तो दूसरे के सहारे हो जाता है। जैसे मंत्रों के अर्थ के विवाद से तर्क भी अपने विषय से पृथक् अप्रमाणित होता है। जैसे धर्म के विचार में इससे परिणाम निकला कि यह युक्ति के विरूद्ध है कि जो दूसरे प्रमाण से सिद्ध हुई वस्तु को श्रुति के बल से खण्डित किया जाय। किस पप्रकार दूसें प्रमाण से सिद्ध पदार्थ को श्रुति से खण्डित किया जाता है, उसके सम्बन्ध में कहते हैं-संसार में भोक्ता और भोक्ता औभोग्य पदाथ्ज्र्ञ का ज्ञान प्रसिद्ध है। शरीर भोगन योग्य पदार्थ और चेतन भोगनेवाला है और शब्दादि विषय में से भोगनेवाला देवदत्त है और भोग योग्य पदार्थ चावल आदि कोई भी पदार्थ है। ब्रह्मा वस्तु हो जायेगा। यदि भोगनेवाला भोग्य हो जाय, तो उनमें एक का एक में अभाव रहेगा और सबसे प्रथम कारण जो ब्रह्मा उससे अभिन्न अर्थात् भेद रहित हो जावेगा। जैसे अब भोगनेवाले और भोगने योग्य पदाथ्ज्र्ञ है। यह ज्ञात होना कि भूतकाल में भी ऐसा ही भेद था और आग को भी ऐसा ही रहेगा, इस कारण से इस ज्ञान के न रहने सह यह सिद्धान्त कि ‘ब्रह्मा जगत् का उपादान कारण है, युक्ति के विरूद्ध है। इस तर्क के उत्तर में कहा जाता है कि यह भेद ऐसा ही है-जैसा कि जल से भेरे समुद्र में लहरें और बुलबुले (बुदबुदे) उत्पन्न होते हैं। उनका समुद्र रूप नहीं होता; परन्तु वे समुद्र से पृथक् नहीं। झाग जल से उत्पन्न होत हैं वे जल-रूप ही हैं। बुदबुदे भी जल से उत्पन्न होते हैं, वे जल का रूप ही हैं प्रश्न- बिना कारण समुद्र में झाग या बुदबुदे अथवा तरंगे उत्पन्न नहीं होतीं। बिना वायु के जल में बुदबुदा व लहरें नहीं हो सकतीं। वायु जल से भिन्न पदार्थ है। उत्तर- वायु भी उपाधि है, ऐसे ही माया की उपाधि से ब्रह्मा में -यह भोक्ता और यह भोगने योग्य पदाथ्ज्र्ञ , भी भेद से कल्पित किये जाते है। प्रश्न- उपाधि ब्रह्मा से भिन्न कोई वस्तु है वा ब्रह्मारूप ही है? यदि ब्रह्मारूप ही है, तो उसकी उपाधि संज्ञा ही नहीं हो सकती; यदि उपाधि उसको कहते हैं, जो स्वरूप से भिन्न करोगे, तो वह दूसरी वस्तु हो जायगी, जिससे अद्वैत सिद्धान्त की हानि होगी। उत्तर- न तो हम मानते हैं कि उपाधि कोई वस्तु है और नहीं उसको अभावरूप मानतेहैं; किन्तु एक वस्तु है, जिसका भाव वा अभाव का सम्बन्ध कुछ वर्णन नहीं हो सकता। नहीं ब्रह्मा को जगत् बनजाना ही स्वीकार करते हैं कि ‘‘ब्रह्मा जगत् रूप से विद्यमान होता है’’ क्योंकि श्रुति कहती है कि ‘‘उसने जगत् को रचा और उसमें प्रविष्ट हो गया’’ यह कारण कार्य का भेद केवल उपाधि से है, जैसे समुद्र में तरंगे बुलबुला आदि का भेद है। इसलिये परम कारण ब्रह्मा से भिन्न न होते हुए भोगनेवाला और भोगने योग्य वस्तु का भेद हो सकता है।