सूत्र :तर्काप्रतिष्ठानाद् अपि अन्यथानुमेयम् इति चेद् एवम् अप्य् अनिर्मोक्षप्रसङ्गः2/1/10
सूत्र संख्या :10
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (तर्क) अर्थात् युक्ति के। (अप्रतिष्ठानात्) स्थिर न रहने से व दोष रहित न होने से। (अपि) भी (अन्यथा) इसके विरूद्ध मानने की दशा में (अनुमेपम्) अनुमान करने के योग्य। (इति) यह (चेत) यदि स्वीकार किया जाये (एवम्) इस प्रकार से (विमोक्ष) मुक्ति के न होने का (प्रसंगः) प्रसंग होगा।
व्याख्या :
अर्थ- जो विषय शास्त्र से जानने योग्य है, केवल उसे केवल तर्क से सिद्ध करना बुद्धिमत्ता नहीं। उदाहरणतः कोई मनुष्य वैद्यक व डाक्टरी के किसी ग्रन्थ को स्वीकार न करे, तो वह सही परिणाम पर नहीं पहुँच सकता। इस कारण जो शास्त्र में नियमपूर्वक युक्तियाँ हैं, उनसे तो सत्य ज्ञान हो सकता है और मनगढ़न्त नियम रहित कुतर्कों से सत्य ज्ञान नहीं हो सकता-जैसे किसी मनुष्य ने पक्ष किया कि ‘‘जितने पदार्थ जगत् में हैं, सब मिथ्या है’’ दूसरे ने कहा तुम्हारा कथन भी जगत् में होने से मिथ्या है जब यह कथन भी मिथ्या हुआ, तो जगत् के पदार्थ सत्य हो गये। उसने कहा-यदि जगत् के पदार्थ मिथ्या हैं, अनवस्था प्रारम्भ हो जावेगी और किसी परिणाम पर नहीं पहुँचा जा सकेगा। दूसरे यदि तर्कवादी एक ही परिणाम पर पहुँचे, तो तर्क स्वीकार किया जा सकता हैं; परन्तु युक्ति से विवाद करनेवाले अनेक परिणामों पर पहुँच जाते हैं। जिससे सिद्ध होता है कि तर्क किसी पदार्थ की सत्यता को प्रकट कर सकता। केवल तर्क करनेवाले की शक्ति इससे प्रकट हो सकती है, जिसकी बुद्धि तीर्व होगी, वह अपने से निर्बल बुद्धिवाले को परास्त कर देगा, जब तक शास्त्र के अनुसार तर्क न हो। तब तक सत्य का निर्णय कठिन-सा क्या, असंम्भव है।
प्रश्न- क्या कणाद और कपिल आदि की युक्तियों में विरोध है? जिससे उनके तर्क अयुक्त माने जावें।
उत्तर- तर्क में विरोध नहीं; किन्तु एक मंजिल की सब सीढि़याँ हैं प्रत्येक दर्शनकार ने ब्रह्मा ज्ञान के उच्च स्थान में पहुँचने के लिये एक-एक सीढ़ी बना दी; परन्तु टीकाकारों ने अशुद्ध टीका करके उनमें विरोध उत्पन्न कर दिया है; जिससे बहुत-सी जगह तर्क सत्पदार्थ का खण्डन कर देता है; क्योंकि जब एक तर्क करनेवाला दूसरे के तर्क का चाण्डन करता है, तो उसका तर्क भी उसके विरूद्ध होने से स्थिर रह सकता। इस कारण तर्क ने तर्क को गिरा दिया।
प्रश्न- यदि कोई मर्क स्थिर न रह सके, तो सब जगत् का व्यवहार रूक जावेगा। भूत और वर्तमान-काल के अनुसार भविष्य में एकसा होना स्वीकार किया जाता है, वह स्थिर नहीं रहेगा; क्योंकि इन दोनों को देखकर ही मनुष्य कार्य करते हैं और जहाँ एक मंत्र के दो अर्थ किये जावें तथा अनर्थ को दूर करने और शुद्ध कर लेने में भी तर्क ही से कार्य लेना पड़ता और मनुस्मृति में भी इसी लेख है कि जो ऋषि का बताया हुआ वेदानुकूल तर्क से अनुसन्धान (खोज) किया हुआ धर्म है, वही धर्म कहा जा सकता है और नहीं।
उत्तर- दो प्रकार के विषय हैं, एक वह-जो प्रत्यक्ष के द्वारा अनुमान के विषय हैं, उनमें तर्क काम देता है और जो प्रत्यक्ष तथा अनुमान का विषय नहीं, उनमें तर्क काम नहीं दे सकता। इसलिये तर्क अप्रतिष्ठता ब्रह्माज्ञानादि परोक्ष विषयों मे ही जो शब्द प्रमाण से जाने जाते हैं, स्वीकार की गई है, जो प्रत्यक्ष पदार्थ देख पड़ते हैं, उनको तर्क से जानने की कुछ आवश्यकता नही। केवल अनुमानों के विषय में ही तर्क से काम लेना चाहिएद्ध क्योंकि यदि प्रत्येक विषय में तर्क से कार्य लिया जावे, तो बहुधा स्थानों पर पूर्व लिखित अनवस्था दोष की तरह अनवस्था उत्पन्न हो जायगी और मोक्ष को सिद्ध करना भी कठिन हो जायगा; क्योंकि ऐसी दशा में मोक्ष को प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा। जिससे1 व्याप्ति लेकर अनुमान किया जावेगा। निदान प्रमाण से मोक्ष का अधिक सम्बन्ध है और वह मोक्ष तत्वज्ञान अर्थात् ब्रह्माज्ञान से प्राप्त होती है, यह मान लिया है कि ब्रह्माज्ञान अर्थात् सत् पदार्थों के ज्ञान का नाम है और सत् पदार्थों में सबसे आवश्यक, जो आत्मा के लिये उपयोगी है, वह ब्रह्मा है। इस कारण मुक्ति ब्रह्माज्ञान से ही हो सकती है, जब तक ब्रह्माज्ञान न हो, तब तक मुक्ति का अभाव होगा। ब्रह्मा एक है, दो हो नहीं सकते। इसलिये एक ही ब्रह्मा के ज्ञान से मुक्ति बतलाई है और वह ब्रह्मा जगत् का कारण है। यद्यपि अनेक मनुष्य ब्रह्मा को जगत् का उपादान कारण और निमित्त कारण दोनो सिद्ध करने का उद्योग करते हैं, जिसकी ऊपर बहुत-सी युक्तियाँदी जा चुकी हैं। ब्रह्मा को जगत् का उपादान कारण सिद्ध करने से ब्रह्मा में अधिक दोष आते हैं, जिसका विवाद पहले आ चुका है।
प्रश्न- तर्क त्याग करना ईश्वर के सम्बन्ध में क्या आवश्यक है?
उत्तर- ब्रह्माज्ञान शका से रहित होता है और तर्कवाले मस्तिक में शंका बनी रहेगी; क्योंकि एक मनुष्य ने युक्तियों से ईश्वर का होना सिद्ध किया , तो दूसरा उसके न होने की शंका करेगा। जिससे संदिग्ध ज्ञान होकर मुक्ति के बदले विनाश हो जायेगा। क्योंकि संदिग्ध ज्ञान से कर्म न हो सकने (वा मिथ्या कर्म होने) के कारण नाश हो जाता है
प्रश्न- सांख्य का ज्ञान सबसे अच्छा है, इस कारण उसके विरूद्ध तर्क कार्य नहीं करेगा। अतः वह ज्ञान तत्वज्ञान कहाने योग्य है।
उत्तर- प्रथम तो यह कथन ही कि ‘‘सांख्य के सामने ज्ञानवाला न हुआ और न है’’उचित नहीं और आगे भी न होगा, यह किसी प्रकार मानने योग्य नहीं हो सकता। केवल वेद ही नित्य ज्ञान है। इस कारण उसी से सत्यज्ञान हो सकता है, इस कारण वेद के अतिरिक्त शुद्ध और पूर्णज्ञान का मिलना असम्भव है। अतः वेदानुकूल (ज्ञान) को ही ग्रहण करना चाहिए।