सूत्र :स्वपक्षदोषाच् च 2/1/9
सूत्र संख्या :9
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (स्वपक्ष) अपने पक्ष अर्थात् दावे में भी उन्हें (दोषात्) दोषों के विद्यमान से (च) और भी।
व्याख्या :
अर्थ- जो दोष ब्रह्मा को जगत् का उपादान कारण मानने में दिये जाते हैं, वह प्रकृति को जगत् का निमित्त कारण अर्थात् स्वतन्त्र मानने में भी उपस्थित होते हैं। फिर किस प्रकार कह सकते हैं कि जगत् ब्रह्मा का कार्य नहीं है?
प्रश्न- प्रकृति को कारण (निमित्त कारण) मानने में यह दोष कैसे आयेंगे?
उत्तर- क्योंकि शब्दादि से रहित जो प्रकृति है, उससे शब्दादि गुण रखनेवाला जगत् विलक्षण ही नजर आता है। दुसरे प्रकृति अवयव1 है और जगत् अवयवी है। जब प्रकृति से विरूद्ध गुणवाला जगत् हो गया, तो उसमें ‘‘सत्कार्यवाद आ जाएगा अर्थात् कार्य (अवयवी) प्रथम’’ नहीं था, अब उत्पन्न हो गया। ऐसे ही प्रलय में कार्य कारण से पृथक् न होने से वैसा ही दोष प्रसेग होगा, यह दोष भी वैसा ही होगा, ऐसे ही मिट्टी से बने हुए सब कार्यों में प्रलय-काल में भेद से रहित अवस्था होने के कारण यह ज्ञान कि यह अमुक व्यक्ति के शरीर का उपादान कारण है और यह अमुक का भेद न रहेगा। अर्थात् प्रलय-काल से प्रथम जो भेद विद्यमान था, वह दूसरी सृष्टि में रहेगा; क्योंकि भेद का कारण दूर हो गया है। फिर जब भेद के कारण की उपस्थिति का नियम न रहेगा, तो दोनों अवस्थाओं में कारण के अभाव एक से होने से मुक्त जीवों की भी उत्पत्ति इसी कल्प के भीतर हो सकेगी।
प्रश्न- यदि यह स्वीकार किया जावे कि ‘‘प्रलय काल में कुछ भेद विद्यमान होता है और कुछ नहीं होता, तो क्या दोष होगा?’’
उत्तर- उस अवस्था में जिन कार्यों में भेद नहीं पाया जायगा, वे प्रधान अर्थात् प्रकृति के कार्य नहीं होंगे। इस कारण यह दोष होगा कि कोई पदार्थ प्रकृति का कार्य है, कोई नहीं। साधारणतया इस प्रकार के आक्षेप जो ब्रह्मा के निमित्त कारण होने में किये जाते हैं, प्रकृति के निमित्त कारण होने में भी किये जा सकेंगे।
प्रश्न- क्या तर्क से यह निर्णय नहीं हो सकता कि प्रकृति कारण हे वा ब्रह्मा?