सूत्र :अपीतौ तद्वत्प्रसङ्गाद् असमञ्जसम् 2/1/7
सूत्र संख्या :7
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (अपीतौ) प्रलयकाल (तत्) उसकी (वत्) प्रकार (प्रसंगात्) आक्षेप की गुज्ञा रखने से (असमज्ञसम्) दोष से भरे हुए अर्थात् दूषित होंगे।
व्याख्या :
अर्थ- यदि स्थूल अर्थात् कसीफ मुरककब गैर मुदिरक। सावयव अचेतन सान्त और अशुद्धता आदि गुण वाला कार्य ब्रह्मा का ही कार्य माना जावे, तो वह प्रलयावस्था में उत्पन्न कार्य, कारण से पृथक् न हो सकेंगे। कार्य कारण को अपने दोषों से दूषित सिद्ध करदेगा तो उस कारण ब्रह्मा में भी अशुद्धता आदि दोष आ जाने से दूषण होगा। जिससे उपनिषद् से संगति रखनेवाला दर्शन भी दूषित सिद्ध होता है। पुनः सब भोग का भोग न रहने से उत्पत्ति के नियम और कारण अर्थात् भोगने योग्य पदार्थ की ज्ञान से उत्पत्ति नहीं होगी। अर्थात् जो कुछ उत्पन्न होगा, वह एक ही होगा। उसमें यह अन्तर नहीं होगा कि यह तो भोगता चेतन है और यह भोगने योग्य वस्तु अचेतन है। निदान यह भी दोष है। भोगनेवाले जो जीव उनकी ब्रह्मा से पहचान न हो सकने से कर्म आदि के कारण से हो सकने वाली प्रलय भी नहीं हो सकेगी; क्योंकि उस समय दुबारा उत्पत्ति होगी; क्योंकि नियम कोई हो नहीं सकता। कारण कि सब पदार्थों का कारण ब्रह्मा होने से सब ब्रह्मा ही होंगे और मुक्त पुरूष के उत्पन्न होने का भी दोष आयेगा। अतः यह सिद्धान्त दूषित है ऐसे ही प्रलय काल में भी जगत् ब्रह्मा से पृथक् ही स्थित रहेगा। इसी प्रकार सृष्टि भी न होगी; क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता, इस कारण यह भी दूषित है।
प्रश्न- क्या यह अवयवी, अपवित्र, अचेतन और सान्त पदार्थ ब्रह्मा से उत्पन्न नहीं हुआ?
उत्तर- वस्तुओं की प्रकृति (उपादान) ब्रह्मा को मानने से सत् कार्यवाद से ब्रह्मा में यह सब दोष सदैव विद्यमान रहेंगे, जिससे सब बुराइयाँ ब्रह्मा में आ जाने से यह सिद्धान्त दूषित भी होगा। निदान वेदान्त की शिक्षा दूषित कहावेगी।
प्रश्न- ब्रह्मा को प्रकृति अर्थात् उपादान कारण स्वीकार करने से क्या दोष होगा?
उत्तर- उस अवस्था में सबके चेतन होने से भोक्ता और भोग्य पदार्थ का भेद न रहने से दुबारा सृष्टि भी न होगी; क्योंकि उपादान कारण का निय नहीं रहा और नहीं उत्पत्ति का कारण रहेगा।
प्रश्न- और भी कोई दोष है?
उत्तर उत्पत्ति संयोग और वियोग से होती है, जब ब्रह्मा सर्वव्यापक निराकार है, तो उसमें न तो वियोग हो सकता है और न संयोग ही। इससे सृष्टि और प्रलय असम्भव रहेगी। और भोक्ता, जीव, भोग्य, कर्म इनका भेद न रहने से प्रलय भी न होगी और वह मुक्त पुरूष बद्ध बन जायँगे और बद्ध पुरूष मुक्त बन जायँगे। तात्पर्य यह है कि बहुत से दोष प्राप्त होंगे। जिनका बताना भी अधिक है। इस पर कहते हैं-