सूत्र :असद् इति चेन् न प्रतिषेधमात्रत्वात् 2/1/6
सूत्र संख्या :6
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (असत्) जो न होकर उत्पन्न हो अर्थात् जिसका प्रागभाव हो जिसकी सत्ता उत्पत्ति से प्रथम न हो (इति) यह (चेत्) यदि स्वीकार करो तो (न) नहीं हो सकता (प्रतिषेध मात्रत्वात्) तो यह केवल खण्डन ही है, उसकी सत्ता नहीं हो सकती।
व्याख्या :
अर्थ- यदि चेतन शुद्ध शब्द आदि से रहित ब्रह्मा अपने से विरूद्ध जड़ अशुद्ध और शब्दादि गुणवाले जगत् का कारण स्वीकार किया जाये, तो उत्पत्ति से प्रथम कार्य असत् होगा अर्थात् उसका अभाव मानना पड़ेगा और यह सत् कार्य वादियों के मत में स्वीकृति योग्य नहीं; परन्तु यह कोई दोष नहीं; क्योंकि यह केवल खण्डन नहीं है; क्योंकि इस खण्डन से जो वस्तु रोकी जाती है, वह विद्यमान नहीं, यदि उत्पत्त से पूर्व कार्य विद्यमान नहीं, यदि उत्पत्ति से पूर्व कार्य विद्यमान हो, तो उस खण्डन का इस पर कोई प्रभाव नहीं हो सकता। क्योंकि विद्यमान का अभाव किसी युक्ति से हो नहीं सकता। भाव को अभाव बताना अपनी अज्ञता प्रकट करनी है-जैसे अब यह कार्य जो कार्य कारण से उत्पन्न हुआ है, सत् ऐसे ही उत्पत्ति से प्रथम होगा, न हो, अब यह कार्य कारण के बिना स्वयं सिद्ध है।
प्रश्न- क्या शब्दादि से रहित ब्रह्मा जगत् का निमित्त कारण हो सकता है?
उत्तर- जिस कारण में कर्म को शक्ति नहीं, जो स्वयम् किसी प्रमाण से स्वतंत्र सिद्ध नहीं हो सकती, वह प्रकृति किसी निमित्त कारण नहीं हो सकता; किन्तु जो ब्रह्मासत् चित् और आनन्दमय है, वह ही इस जगत् का निमित्त कारण हो सकता है। निमित्त कारण के लिये ज्ञान और स्वतंत्रता का होना आवश्यक है, जो अचेतन प्रकृति में विद्यमान नहीं।
प्रश्न- प्रकृति अचेतन और परतंत्र बतलाता है-देखो सूत्र 18 अध्याय प्रथम इस कारण यह भी उचित नहीं कि उत्पत्ति से प्रथम कार्य, असत् अर्थात् अभाव वाला है। इसकी अधिक व्याख्या कारण से पृथक् इस स्थान पर की जायेगी-