सूत्र :अभिमानिव्यपदेशस् तु विशेषानुगतिभ्याम् 2/1/4
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (अभिमानि) जो इन्द्रियों का अभिमानी जीवात्मा है (व्यापदेशः) वही बतलाया (तु) शंका दूर करने के लिये कहा (विशेषानुगतिभ्याम्) विशेषता से भोगनेवाले और भोगने के यन्त्रों में उपचार से होता है।
व्याख्या :
अर्थ- यद्यपि श्रुतियों में ‘मिट्टी बोली’ ‘जल ने कहा’ आदि वचन देखे आजे हैं, तथापि उनका अर्थ यह नहीं कि वास्तव में मिट्टी बोली वा जल ने कहा। इसका आशय यह है कि जैसे ‘‘लाहौर आ गया’’का आशय यह है कि हम लाहौर आ गये। आने की क्रिया हमने कही न कि लाहौर ने। ‘‘आँखं देखती है’’ कान सुनते हैं’’ से तात्पर्य आँख कान वाले का है। जहाँ कारैपीत की उपनिषद् ने प्राण का निरूपण किया है वहाँ प्राण को देवता कहा है, अर्थात् प्राण के अभिमानी देवता आत्मा से तात्पर्य है।
प्रश्न- इंन्द्रियो के विषय में तो कहा जा सकता है कि उनके अभिमानी जीवात्मा के कर्म को उनके नाम1 आरोपित किया गया है; परन्तु जहाँ ‘‘मिट्टीने कहा’’ ‘‘पानी बोला’’ आदि आया है, वहाँ क्या करोगे?
उत्तर- बोलना दो प्रकार से होता है-एक ‘‘जिन्हा’’ से दूसरा ‘‘लक्षण’’2 से जहाँजीवात्मा नहीं है, वहाँ जिन्हा से बोलना आवेगा और जहाँ जीवात्मा नहीं है, वहाँ जिन्हा से कहना असम्भव है, वहाँ लक्षण से अर्थ किये जायँगे।
प्रश्न- ‘‘अग्नि जिन्हा होकर मुख में प्रवष्टि हो गई’’ यहाँअग्नि में क्रिया पाई जाती है? इसमें क्या करोंगे। यहाँ तो जड़ का चेतन के समान क्रिया करना प्रतीत होता है?
उत्तर- यहाँ अग्नि में जो क्रिया है, वह गति देनेवाले की प्रबन्धीय क्रिया का परिणाम हैं जैसे घड़ीसाज ने घड़ी की कुँजी दे दी, अब वह घड़ी चलती है, घंटा बताती है, शब्द करती है; परन्तु यह सब घड़ीसाज के नियम से हो रहा है, न कि घड़ी की इच्छा से। इस कारण यह जितनी कहानी उपनिषदों में जड़ पदार्थों की लिखी है, वह सक अभिमानी के प्रबन्ध के कारण लिखी गई हैं। इनसे आदि का चेतन होना सिद्ध नहीं होता। जब भूत चेतन नहीं, तो उनका कारण भी चेतन नहीं हो सकता। इसका उत्तर देते हैं।