सूत्र :स्मृत्यनवकाशदोषप्रसङ्ग इति चेन् नान्यस्मृत्यनवकाशदोषप्रसङ्गात् 2/1/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रथम अध्याय में सर्वज्ञ परमेश्वर को जगत् कारण अर्थात् कर्ता सिद्ध किया है और जगत् की उत्पत्ति को प्रबन्ध से रखनेवाला प्रकट किया गया हैं। जिस प्रकार मदारी अपने थैले में से क्रीड़ा की सब सामग्री निकालता है; और कुछ काल स्थिर रखकर पुनः उसी थैले में डाल लेता है। इसी प्रकार ईश्वर अपनी प्रकृति में से जगत् को उत्पन्न करता, स्थिर रखता और फिर उसी में मिला देता है। वेदान्त शास्त्र का बाद ईश्वर कारण बाद और प्रधान अर्थात् ‘‘प्रकृति आदि जगत् का कारण है’’ उसका खण्डन किया गया है-तात्पर्य यह है कि प्रकृति अपने अधिकार से सृष्टि नहीं रच सकती- अब ईश्वर को कारण मानने में जो दूसारी ओर से दोष दिये जाते हैं, उनको तर्क और प्रमाणों से दूर करते हैं-
प्रश्न- यदि ईश्वर को जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण स्वीकार किया जावे, तो सांख्य आदि ऋषियों के बनाये हुए ग्रंथ व्यर्य हो जावेंगे, जिससे तुम्हारे शास्त्र भी प्रमाण नहीं रहेंगे।
उत्तर- स्मृत्य नवकाश दोण इति चेन्नान्यस्मृत्य नवकाश दोण प्रसेगात् ।।1।।
पदार्थ- (स्मृति) ऋषियों के बनाये हुये शास्त्र (अवकाश जिसके लिये कोई स्थान न रहे (दोण) नुक्स बुराई (प्रसंग) प्रसंग (इति) यह (चित्) यदि कहा जावे (न) नहीं (अन्य) दूसरी स्मृतियों के लिये (अनवकाश) स्थान न रहने का (दोष) बुराई (प्रसंगात्) प्रकरण होने से।
व्याख्या :
अर्थ- यह जो कहा गया है कि सर्वज्ञ ब्रह्माही जगत् का कारण है, उसमें यह दोष है कि सांख्य आदि शास्त्र जो प्रकृति को जगत् का कारण मानते हैं, उनके लिये कोई स्थान नहीं रहेगा। इस शंका के उत्तर में ऋषि यह कहते हैं कि यदि सांख्य के अनुकूल प्रकृति को ही जगत् का स्वतन्त्र कारण स्वीकार कर लिया जावे, तो जिन शास्त्रों और उपनिषदों में ईश्वर को जगत् कारण स्वीकार किया है उनके लिये कोई स्थान न रहेगा। निदान यह दोष तो दोनों और है, निदान जो दोष अपने पक्ष में भी आ जावे, उसकों दूसरे में प्रकट करना बुद्धिमान के विरूद्ध है।
प्रश्न- इस प्रकार दोनों शास्त्र प्रमाण नहीं देते।
उत्तर- शास्त्र दोनों ही प्रमाण हैं; परन्तु अर्थ करनेवाले अंधेर करते हैं, सांख्य शास्त्र उपादान कारण का निरूपण करता है। उपादान कारण सदा कत्र्ता के अधिकार में ही कर्म किया करता है, कभी स्वतन्त्र नहीं रहता और वेदान्त शास्त्र आदि मूल अर्थात् कर्ता का निरूपण करता है, जो कभी परतन्त्र नहीं होता, निदान प्रकृति को स्वतन्त्र कारण मानने में अर्थात् अपने अधिकार से ही बिना किसी कर्ता के बन जाती है और ब्रह्मा को (अभिन्न) निमित्तोपादन कारण अर्थात् वही ‘‘इल्लत फायली’’ और वही ‘‘माद्दो’’है, उसमें दोष है; क्योंकि उपादान कारण परतन्त्र होता है औ निमित्तकारण अर्थात् कर्ता स्वतन्त्र होता है परतन्त्रता और स्वतन्त्रता दो विपरीत बातें हैं, इसलिये एक वस्तु का कार्य दोनों में पाया जाना असम्भव है।
प्रश्न- फिर यह विचार किस प्रकार फैल गया ?
उत्तर- शास्त्रों के अर्थ को न समझने से जिन मनुष्यों ने साख्य के भाष्य किये, उन्होने देखा कि सांख्य पुरूष को अलग मानता है। इस कारण उसकों जगत् का कत्र्ता मानने से उसमें इच्छा स्वीकार करनी पड़ेगी। इस कारण उन्होंने प्रकृति को स्वतन्त्र अर्थात् पुरूष रहित जगज् कत्र्ता स्वीकार कर लिया। दूसरी और एक सिद्ध करने के कारण उसको उपादान कारण और निमित्त दोनों स्वीकार कर लिया; जिससे दोनों शास्त्र प्रमाण कोटि से गिर गये-ईश्वर जगत् को निमित्त कारण है और प्रधान उपादान कारण। इस कारण अपने-अपने समय पर दोनों प्रमाण हैं, जिस प्रकार मुंसिफ राज्य कर्मचारी है; परंतु मालगुजारी प्राप्त नहीं कर सकता दूसरे तहसीलदार दीवानी के मुकद्दमें नहीं कर सकता।
प्रश्न- यदि प्रकृति को जगत् का उपादान कारण स्वीकार किया जावे, तो परमात्मा को अद्वैत अर्थात् (वाहिदोला शरीक), कैसे सिद्ध कर सकोगे?
उत्तर- परमात्मा को उसी अवस्था में परमात्मा कह सकते हैं, जब उसका व्याप्य प्रकृति है, यदि व्याप्य न होता, तो परमात्मा कहता ही नहीं सकता। इस कारण प्रकृति से द्वैत नहीं और न है। वह उस दशा में शरीक या सहकारिणी समझी जाएगी जबकि स्वतन्त्र और व्यापक हो, उसी दशा में दोष भी आ सकता है-
प्रश्न- श्रुति ने जो बतलाया है कि अद्वैत अर्थात् एक उसे कहते हैं- जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से रहित हो।
उत्तर- मनुष्यों ने विजातीय शब्द के अर्थों में धोका खाया है, विजातीय के दो अर्थ हैं, एक विरूद्ध जाति, दूसरे भिन्न जाति। इसलिये यहाँ विजातीय से अर्थ विरूद्ध जाति का है अर्थात् ऐसी वस्तु नहीं, जो ब्रह्मा की विरोधी हो, उसको हानि पहुँचा सके-
प्रश्न- ईश्वर में जब उपादान होने के गुण विद्यमान नहीं, जो ईश्वर को उपादान कारण क्यों स्वीकार किया।
उत्तर- बहुत-सी श्रुतियाँ औ स्मृतियाँ उपादान कारण बतलाती हैं, जिससे उपादान कारण होना सिद्ध होता है।
प्रश्न- जब दो प्रकार की स्मृतियाँ मिलती हैं, तो आपस में विरूद्ध हैं, जिनमें एक के सत्य होने से दूसरे का असत्य होना आवश्यक है, ऐसे समय पर क्या किया जावे?
उत्तर- जो स्मृति वेदानुकूल हो, वह मानने योग्य हैं जो वेद के प्रतिकूल है, वह त्यागने योग्य है और उन के अर्थ इस ढंग पर करने चाहिए जिससे वह विरूद्ध न रहें-
प्रश्न- प्रकृति को उपादान कारण वेद ने भी स्वीकार किया है, तो सांख्यशास्त्र भी वेदानुकूल ही है।